Bihar Board Class 7 Social Science History Solutions Chapter 7 सामाजिक-सांस्कृतिक विकास

Bihar Board Class 7th Social Science Book Solutions सामाजिक विज्ञान Chapter 7 सामाजिक-सांस्कृतिक विकास NCERT पर आधारित Text Book Questions and Answers Notes, pdf, Summary, व्याख्या, वर्णन में बहुत सरल भाषा का प्रयोग किया गया है.

Bihar Board Class 7 Social Science History Solutions Chapter 7 सामाजिक-सांस्कृतिक विकास

प्रश्न 1.
आप बता सकते हैं कि इस्लाम धर्म अपने साथ खाने-पीने और पहनने की कौन-कौन-सी चीजें साथ लेकर आया ?
उत्तर-
इस्लाम धर्म अपने साथ पहनने के लिये कुर्ता-पायजामा, सलवार-समीज, लँगी, कमीज अचकन आदि लाये, जिन्हें हिन्दुओं ने भी अपना लिया । इस्लाम खाने की चीजों में हलवा, समोसा, पोलाव, बिरयानी आदि लाये, जिसे हिन्दू भी खाते हैं।

प्रश्न 2.
विभिन्न धर्मों के समानताओं एवं असमानतों को चार्ट के माध्यम से बताएँ।
उत्तर-
Bihar Board Class 7 Social Science History Solutions Chapter 7 सामाजिक-सांस्कृतिक विकास 1
इन छोटी-मोटी समानता या असमानता किसी तरह मेल-जोल में बाधक नहीं बनतीं । सभी मिल-जुलकर रहते हैं ।

प्रश्न 3.
आप अपने शिक्षक या माता-पिता की सहायता से पाँच-पाँच हिन्दू देवी-देवताओं, सूफी एवं भक्ति संतों से जुड़े स्थलों की सूची बनाइए।
उत्तर-
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अभ्यास के प्रश्नोत्तर

आइए याद करें:

प्रश्न 1.
सिंध विजय किसने की?
(क) मुहम्मद-बिन-तुगलक
(ख) मुहम्मद बिन कासिम
(ग) जलालुद्दीन अकबर
(घ) फिरोशाह तुगलक
उत्तर-
(ख) मुहम्मद बिन कासिम

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प्रश्न 2.
महमूद गजनी के साथ कौन-सा विद्वान भारत आया ?
(क) अल-बहार
(ख) अल जवाहिरी
(ग) अल-बेरूनी
(घ) मिनहाज उस सिराज
उत्तर-
(ग) अल-बेरूनी

प्रश्न 3.
भारत में कुर्ता-पायजामा का प्रचलन किनके आगमन से शरू हुआ?
(क) ईसाई
(ख) मुसलमान
(ग) पारसी
(घ) यहूदी
उत्तर-
(ख) मुसलमान

प्रश्न 4.
अलवार और नयनार कहाँ के भक्त संत थे ?
(क) उत्तर भारत
(ख) पूर्वी भारत
(ग) महाराष्ट्र
(घ) दक्षिण भारत
उत्तर-
(घ) दक्षिण भारत

प्रश्न 5.
मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह कहाँ है ?
(क) दिल्ली
(ख) ढाका
(ग) अजमेर
(घ) आगरा
उत्तर-
(ग) अजमेर

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प्रश्न 2.
इन्हें सुमेलित करें :

निजामुद्दीन औलियां – (1) बिहार
शंकर देव – (2) दिल्ली
नानकदेव – (3) असम
एकनाथ – (4) राजस्थान
मीराबाई – (5) महाराष्ट्र
संत दरिया साहब – (6) पंजाब

उत्तर-

निजामुद्दीन औलियां – (2) दिल्ली
शंकर देव – (3) असम
नानकदेव – (6) पंजाब
एकनाथ – (5) महाराष्ट्र
मीराबाई – (4) राजस्थान
संत दरिया साहब – (1) बिहार
आइए समझकर विचार करें

प्रश्न 1.
भारत में मिली-जुली संस्कृति का विकास कैसे हुआ ? प्रकाश डालें।
उत्तर-
1206 में दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर पर हिन्दू और मुसलमानों का सम्पर्क बना । इसके पूर्व जहाँ भारत के लोग तुर्क-अफगानों को एक लुटेरा और मूर्ति भंजक समझते थे, अब शासक के रूप में स्वीकारने लगे । इस भावना को फैलाने में उन भारतीयों की याददाश्त भी थी, जिन्हें मालूम था कि कभी अफगानिस्तान पर भारत का शासन था ।

अतः यहाँ के लोग अफगानों को गैर नहीं मानते थे । खासकर बिहार में, क्योंकि अशोक बिहार का ही था । अलबरूनी, जो महमूद गजनी के साथ भारत आया था, यहाँ रहकर संस्कृत की शिक्षा ली और हिन्दू धर्मग्रंथों और विज्ञान का अध्ययन किया । उसने यहाँ के सामाजिक जीवन को भी निकट से देखा । खूब सोच-समझकर उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘किताब-उल-हिन्द’ लिखी ।

दूसरी ओर अनेक सूफी संत और धर्म प्रचारक भारत के विभिन्न नगरों में बसने लगे। इससे इन दोनों धर्मों को मानने वालों के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान और समन्वय का वातावरण बना ।

मुस्लिम शासकों, खासकर मुगलों द्वारा स्थापित राजनीतिक एकता का सबसे बड़ा प्रभाव हिन्दू भक्त संतों एवं सुफी संतों के मेल मिलाप बढ़ने पर दोनों ने इस भावना का प्रचार किया कि भगवान एक है । ईश्वर और अल्लाह में कोई फर्क नहीं । सभी धर्म के लोगों की चरम अभिलाषा खुदा तक पहुँचने की होती है। तुम खुद में खुदा को देखो ।

आगे चलकर एक के पहनावे और खानपान को दूसरे ने अपनाया । राज काज में हिस्सा लेने वाले हिन्दू भी फारसी पढ़ने लगे और पायजामा और अचकन का व्यवहार करने लगे । इसी प्रकार भारत में मिली-जुली संस्कृति का विकास हुआ।

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प्रश्न 2.
निर्गुण भक्त संतों की भारत में एक समृद्ध परम्परा रही है। कैसे?
उत्तर-
रामानन्द के अनुयायियों काएक अन्य वर्ग उदारवादी अथवा निर्गुण सम्प्रदाय कहलाता है । इन निर्गुण भक्त संतों ने ईश्वर को तो माना लेकिन उसके किसी रूप को मानने से इंकार कर दिया। ये निराकार ईश्वर में विश्वास करते थे । निर्गुण भक्त संतों ने, जाति-पात, छुआछूत, ऊँच-नीच, मूर्ति-पूजा का घोर विरोध किया ।

ये कर्मकांडों में भी विश्वास नहीं करते थे। निर्गुण भक्त संतों में कबीर को सर्वाधिक प्रमुख संत माना जाता है । ये एक मुखर कवि के रूप में भी प्रसिद्ध है । कबीर इस्लाम और हिन्दू-दोनों धर्म के माहिर जानकार थे । इन्होंने दोनों धर्मों के ढकोसलेबाजी की घोर भर्त्सना की । इनके विचार ‘साखी’ और ‘सबद’ नामक ग्रंथ में सकलित हैं । इन दोनों को मिलाकर जो ग्रंथ बना है उसे ‘बीजक’ कहते हैं ।

कबीर के उपदेशों में ब्राह्मणवादी हिन्दु धर्म और इस्लाम धर्म, दोनों के आडम्बरपूर्ण पूजा-पाठ और आचार-व्यवहार पर कठोर कुठारापात किया गया । यद्यपि इन्होंने सरल भाषा का उपयोग किया किन्तु कहीं-कहीं रहस्यमयी भाषा का भी उपयोग किया है। ये राम को. तो मानते थे लेकिन इनके राम अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र नहीं थे । इन्होंने अपने राम के रूप का इन शब्दों में बताया है :

“दशरथ के गृह ब्रह्म न जनमें, ईछल माया किन्हा ।” इन्होंने दशरथ के पुत्र राम को विष्णु का अवतार मानने से भी इंकार किया :

चारि भुजा के भजन में भूल पड़ा संसार । कबिरा सुमिरे ताहि को जाकि भुजा अपार गुरु नानक देव तथा दरिया साहेब निर्गुण भक्त संतों की परम्परा में ही थे।

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प्रश्न 3.
बिहार के संत दरिया साहेब के बारे में आप क्या जानते हैं ? लिखें।
उत्तर-
दरिया साहब का कार्य क्षेत्र तत्कालीन शाहाबाद जिला था, जिसके अब चार जिले-भोजपुर, रोहतास, बक्सर और कैमूर हो गये हैं।

विचार से दरिया साहेब एकेश्वरवादी थे । इनका मानना था कि ईश्वर सर्वव्यापी है तथा वेद और पुराण दोनों में ही उसी का प्रकाश है । ईश्वर को. दरिया साहब ने निर्गुण और निराकार माना। इन्होंने अवतार और पूजा-पाठ को मानने से इंकार कर दिया । इन्होंने मात्र प्रेम, भक्ति और ज्ञान को मोक्ष प्राप्ति का साधन माना ।

इनके अनुसार प्रेम के बिना भक्ति असंभव है और भक्ति के बिना ज्ञान भी अधूरा है । इनका कहना था कि ईश्वर के प्रति प्रेम पाप से बचाता है और ईश्वर की अनुभूति में सहायक बनता है । ये मानते थे कि ज्ञान पुस्तकों में नहीं है, बल्कि चेतना में निहित है, जबकि विश्वास ईश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण मात्र है । दरिया साहब ने जाति-प्रथा, छुआछूत का विरोध किया । इनके विचारों पर इस्लाम का एवं व्यावहारिक पहलुओं पर निर्गुण भक्ति का प्रभाव दिखाई देता है । इनको मानने वालों में दलित वर्ग की संख्या अधिक थी।

दरिया साहब के विचारों को मानने वालों की सख्या आज के भोजपर, बक्सर, रोहतास और भभुआ जिलों में अधिक थी । उन्होंने वहाँ मठ की भी स्थापना की । इनके मानने वालों की संख्या वाराणसी में भी कम नहीं थी।

दरिया साहब के क्या उपदेश थे, उसे निम्नांकित अंशों से मिल सकते हैं: “एक ब्रह्म सकल घटवासी, वेदा कितेबा दुनों परणासी -1”. “ब्रह्म, विसुन, महेश्वर देवा, सभी मिली रहिन ज्योति सेवा।” “तीन लोक से बाहरे सो सद्गुरु का देश ।” “तीर्थ, वरत, भक्ति बिनु फीका तथा पड़ही पाखण्ड पथल का पूजा ।” दरिया साहब को बहुत हद तक कबीर का अनुगामी कहा जा सकता है।

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प्रश्न 4.
मनेरी साहब बिहार के महान सुफी संत थे। कैसे?
उत्तर-
मनेरी, साहब का पूरा नाम था ‘हजरत मखदुम शरफुद्दीन याहिया मनेरी । बिहार में फिरदौसी परम्परा के संतों में मनेरी साहब का विशेष महत्व है। भारत में मिली-जुली संस्कृति की जो पवित्र धारा सूफी संतों ने बहायी, उस संस्कृति को बिहार में मजबूत करने का काम मनेरी साहब ने ही किया। इन्होंने संकीर्ण विचारधारा का न केवल विरोध किया, बल्कि जाति-पाति एवं धार्मिक कट्टरता का भी विरोध किया । इन्होंने समन्वयवादी संस्कृति के निर्माण का सक्रिय प्रयास किया ।

इनके प्रयास से फिरदौसी परम्परा को बिहार में काफी लोकप्रियता मिली । मनेरी साहब ने मनेर से मुनारगाँव, जो अभी बांग्लादेश में पड़ता है, तक की यात्रा की और ज्ञानार्जन किया । इसके बाद ये राजगीर तथा बिहारशरीफ में तपस्या करते हुए धर्म प्रचार में भी लीन रहे। फारसी भाषा में उनके पत्रों के दो संकलन मकतुबाते सदी एवं मकतुबात दो ग्रंथ प्रमुख हैं। मनेरी साहब ने हिन्दी में भी बहुत लिखा है, जिनमें इन्होंने ईश्वर को अपने सूफियाना ढंग से व्यक्त किया है । इन्होंने इस लेख में अपने को प्रेयसी तथा ईश्वर या अल्ला को प्रेमी माना है ।

मनेरी साहब का मजार मनेर में न होकर बिहार शरीफ में इनकी मजार के बगल में ही उनकी माँ बीबी रजिया का भी मजार है । बीबी रजिया सूफी संत पीर जगजोत की बेटी थी।

प्रश्न 5.
महाराष्ट्र के भक्त संतों की क्या विशेषता थी?
उत्तर-
महाराष्ट्र के भक्त संतों की विशेषता को जानने के लिये हमें 13वीं सदी से 17वीं सदी तक ध्यान देना होगा । भक्त संतों की परम्परा के जन्मदाता रामानुज थे जो दक्षिण भारत के थे। उन्हीं के उपदेशों को भक्त संतों ने पक्षिण

भारत से लेकर महाराष्ट्र तक फैलाया । महाराष्ट्र में 13वीं सदी में नामदेव ने। भक्ति धारा को प्रवाहित किया, जिसे 17वीं सदी में तुकाराम ने आगे बढ़ाया।

इस बीच हम भक्त संतों की एक समृद्ध परम्परा को देखते हैं । इन भक्त संतों ने ईश्वर के प्रति श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम के सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाया । इन संतों ने धार्मिक आडम्बर, मूर्ति पूजा, तीर्थ व्रत, उपासना और कर्मकाण्डों का घोर विरोध किया और कहा कि यह सब कुछ नहीं, केवल दिखावा मात्र है।

इन्होंने आयों की वर्ण व्यवस्था को भी मानने से इंकार कर दिया और जाति-पाति, ऊंच-नीच के भेदभाव का घोर विरोध किया । इनके अनुयायियों ने सभी जाति के लोगों, महिलाओं और मुसलमानों को भी शामिल किया।

महाराष्ट्र के इन संतों ने भक्ति की यह परम्परा पंढरपुर में विट्ठल स्वामी को जन-जन के ईश्वर और आराध्य के रूप में स्थापित किया । ये विठ्ठल स्वामी विष्णु के ही एक रूप श्रीकृष्ण थे । महाराष्ट्रीय भक्त संतों की रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों पर करारा प्रहार किया गया । इन्होंने सभी वर्गों, जातियों, यहाँ तक कि अंत्यज कहे जाने वाले दलितों को भी समान दृष्टि से देखा । इन भक्त संतों ने अपने अभंग द्वारा सामाजिक व्यवस्था पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया।

संत तुकाराम ने अपने अभंग में लिखा
जो दीन-दुखियों, पीड़ितों को
अपना समझता है वही संत है क्योंकि ईश्वर उसके साथ है।

विचारणीय मुद्दे

प्रश्न 1.
मध्यकालीन भक्त संतों में कुछ अपवादों को छोड़कर एक समान विशेषताएँ थीं। कैसे?
उत्तर-
मध्यकालीन भारत में भक्त आंदोलन के उद्भव और विकास में कई परिस्थितियाँ जिम्मेदार थीं । वैदिक पंडा-पुरोहित कर्मकांडों को आधार बनाकर जनता का शोषण करते थे । जो कर्मकांडों के व्यय को वहन करने योग्य नहीं थे, उन्हें नीच करार दिया गया । इस कारण समाज में दलितों की संख्या बढ़ गई । इन्हीं बुराइयों को दूर करने में भक्त संत लगे रहे । यद्यपि आगे चलकर इनमें भी दो मतावलम्बी हो गये, लेकिन धर्म सुधार की जिस मकसद से ये संत बने थे उसमें कोई अन्तर नहीं आया । इसलिये कहा गया है कि कुछ अपवादों को छोड़कर भक्त संतों की एक समान विशेषताएँ थीं।

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प्रश्न 2.
शंकराचार्य ने भारत को सांस्कृतिक रूप से एक सूत्र में बांधा। कैसे?
उत्तर-
शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में मठों का निर्माण कर भारत को सांस्कृतिक रूप में एक सूत्र में बाँधने का काम किया । वे चारों मठ थे:

उत्तर में बद्रीकाश्रम, दक्षिण में शृंगेरी, परब में परी तथा पश्चिम में द्वारिका । इस प्रकार हर भारतीय जीवन में एक बार इन मठों में जाकर पूजा अर्चना करना अपना एक कृत्य मानने लगा । इससे सम्पूर्ण भारत धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से एक सूत्र में बंध गया । उस शंकराचार्य को आदि शंकराचार्य कहते हैं। अभी हर मठ के अलग-अलग शंकराचार्य होते हैं, ताकि परम्परा कायम रहे । एक शंकराचार्य की मृत्यु के बाद दूसरे शंकराचार्य नियुक्त ‘ हो जाते हैं।

प्रश्न 3.
क्या आपके गाँव के पुजारी मध्यकालीन संतों की तरह कर्मकांड, जात-पात, आडम्बर आदि का विरोध करते हैं? अगर नहीं तो क्यों ?
उत्तर-
ग्रामीण क्षेत्रों में अभी बहुत बदलाव नहीं आया । अभी भी यहाँ के पुजारी कर्मकांड, जातपात, आडम्बर आदि का विरोध नहीं करते । कारण कि यदि वे ऐसा करें तो उनकी रोजी ही समाप्त हो जाय । दूसरी बात है कि गाँव के ऊँची जातियाँ उनका समर्थन भी करती है । इसलिये कानून की परवाह किये बिना वे लगातार लकीर के फकीर बने हुए है । आर्य समाज का जबतक बोलबाला था तब तक इसमें कुछ कमी आई थी । लेकिन अब वे निरंकुश हो गये हैं। सरकार भी कुछ नहीं कर पाती ।

प्रश्न 4.
क्या आपने हिन्दू और मुसलमानों को साथ रहते हुए देखा है? उनमें क्या-क्या समानताएँ हैं ?
उत्तर-
मैं तो जन्म से ही हिन्दू और मुसलमानों को साथ-साथ रहते हुए देखा है। हमने देखा ही नहीं है, बल्कि साथ-साथ रहे भी हैं और आज भी साथ-साथ रह रहे हैं। अभी का आर्थिक जीवन इतना पेचिदा हो गया है कि बिना एक-दूसरे का सहयोग लिये हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। हम सभी साथ-साथ है । कभी-कभी कुछ राजनीतिक कारणों से विभेद-सा लगता है, हे अन्दर से सभी साथ-साथ हैं । कुछ राजनीतिक दल तो ऐसे

हैं जो एक होने ही नहीं देना चाहते हैं ? सदैव लड़ाते रहना चाहते हैं । वे यही दिखाने में मशगूल रहते हैं कि कौन पार्टी कितना मुसलमानों की हितैषी है। लेकिन इस धूर्तता को मुसलमान भी समझ गये हैं । इसका उदाहरण अभी बिहार और गुजरात है। अब राजनीतिक आधार पर वोट पड़ने लगे हैं । ध म और जाति के आधार पर नहीं ।

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प्रश्न 5.
सांस्कृतिक रूप से सभी धर्मावलम्बियों को और करीब लाने के लिये आप क्या-क्या करना चाहेंगे, जिससे सौहार्दपूर्ण माहौल बने ?
उत्तर-
सांस्कृतिक रूप से सभी धर्मावलम्बियों को और करीब लाने के लिये हम सभी मिलजुलकर संस्कृत उत्सव मनाएँगे । उनके शादी-विवाह आदि खुशी के मौके पर उनको अपने यहाँ बुलाएँगे और उनके बुलावे पर उनके यहाँ जाएँगे । ऐसा करना क्या है, सदियों से ऐसा होता भी आया है और अभी भी हो रहा है । यदि राजनीतिक नेता चुप रहें तो कहीं कोई गड़बड़ी नहीं होगी।

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पाठ का सार संक्षेप

भारत में प्राचीन काल से ही मेल-जोल की परम्परा रही है। तर्क-अफगान आक्रमणकारियों के पहले जितने भी आक्रमणकारी आये, वे हारे या जीते यहीं के होकर रह गये । आज कौन यूनानी है और कौन शक या हूण किसी की कोई पहचान नहीं, सब परस्पर घुल-मिल गये । तुर्क-अफगानों के बाद मुगल आये । आरम्भ में थोड़ा-बहुत मनोमालिन्य के बाद सभी एक-दूसरे के साथ घुलमिल गये, लेकिन इन्होंने अपनी पहचान कायम रखी । वैसे तो व्यापारिक काम से अरब के लोग सातवीं सदी के आरम्भ से ही आना आरम्भ कर दिये थे, जिस समय इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था । इस्लाम के फैलने के बाद पहला आक्रमण आठवीं सदी में मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में सिंध और दक्षिण-पश्चिम पंजाब पर हुआ और वहाँ उनका शासन स्थापित हो गया। लेकिन ये अल्पकाल तक ही टीक पाये।

सिलसिलेवार आक्रमण महमूद गजनवी का था, किन्तु राज्य विस्तार के लिये नहीं, बल्कि लूट-पाट मचाने के लिये । इसके लूट-पाट की खबरों से भारतीय राजाओं की शक्ति की पोल खुल गई । मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराकर यहाँ दिल्ली को हड़प लिया । उसी ने यहाँ उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र को अपने नियंत्रण में कर दिल्ली सल्तनत की नींव डाल दी। स्वयं तो गोरी लौट गया किन्तु अपने एक विश्वासी सेनापति को यहाँ का शासन सौंप गया । सेनापति चूँकि उसका गुलाम था, अत: उसके वंश को गुलाम वंश कहा गया । 1206 में गुलाम वंश की स्थापना हो चुकी थी।

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तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ से तुर्क-अफगानों के साथ कुछ बौद्धिक स्तर, पर मेलजोल बढ़ने लगा था । अलबरूनी ने हिन्दुओं के धर्म, विज्ञान और सामाजिक जीवन से सम्बद्ध ‘किताब-उल-हिन्द’ लिखी । सूफी संत और इस्लाम धर्म प्रचारक गाँव-गाँव घूमकर लोगों को मन से तुर्कों के निकट लाने का सफल प्रयास किया । सूफी संतों के प्रति हिन्दुओं का उतना ही सम्मान . था जितना मुसलमानों का । खानकाहों और पीरों के दरगाहों पर हिन्दुओं का आना-जाना बढ़ गया । तुर्क-अफगान और मुगलों के शासन कार्य की भाषा फारसी थी । अतः हिन्दू राज्य कर्मचारियों को फारसी पढ़ना पड़ा । आगे चलकर फारसी, तुर्की, ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली हिन्दी को मिलाकर उर्दू भाषा का विकास हुआ । उर्दू ने हिन्दू-मुसलमानों को और भी निकट ला दिया ।

यद्यपि कागज का आविष्कार चीन में हुआ, लेकिन इसके तकनीक को भारत में लाने वाले फारस वाले ही थे । इससे लाभ हुआ कि अब भारत में पुस्तक लेखन का काम पत्तों के बजाय कागज पर होने लगा । जिन हिन्दुओं ने इस्लाम धर्म को कबूला, उन्होंने शादी-विवाह की अपनी पुरानी परम्परा को । जारी रखा । कुछ बाहरी मुसलमान भारतीय परम्पराओं को अपनाने लगे । इससे एक मिल-जुली संस्कृति का विकास हुआ ।
भारत में भक्ति अर्थात ईश्वर के प्रति अनुराग की परम्परा प्राचीन काल से ही चलती आई है। दक्षिण भारत में भक्ति एक आन्दोलन के रूप में चल पड़ी । इन्होंने तीन मार्ग, बताए :

ज्ञान मार्ग
कर्म मार्ग तथा
भक्ति मार्ग ।
श्रीमद्भागवत बताता है कि मनुष्य भक्ति भाव से ईश्वर की शरण में जाकर पुनर्जन्म के झंझट से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । पुराणों में उल्लेख है कि भक्त भले ही किसी जाति-पाति का हो, वह सच्ची भक्ति से ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है । वेदों और उपनिषदों में आत्मा-परमात्मा के बीच सीधा सम्बंध स्थापित करने का विचार व्यक्त किया गया है । उपनिषदों ने धार्मिक ब्राह्माडम्बर को त्यागने को कहा ।

वैदिक रीति-रिवाज, पूजा-पाठ, धार्मिक कर्मकांड काफी महंगा हो गया था । पुरोहित अपने लाभ के लिये कर्मकाण्ड को खर्चीला बनाते जा रहे थे । सर्वसाधारण इन पाखंडों से ऊबने लगा था । दलित वर्ग छुआ-छूत और ऊँच-नीच के भेद-भाव से अपने को अपमानित महसूस कर रहा था ।

इस्लाम धर्म एकेश्वरवादी एवं समतावादी सिद्धान्त का प्रचार करता था। इस्लाम में कोई ऊँच और न कोई नीच होता है । इससे भक्त संतों ने हिन्दू-ध म में आत्म सुधार के प्रयास शुरू किए और भक्ति आन्दोलन चल पड़ा । भक्ति आन्दोलन को आप लोगों तक पहुँचाने का काम तमिल क्षेत्र के अलवार और नयनार संतों ने किया । इन्होंने भी पुनर्जन्म से मुक्ति और ईश्वर के पूर्ण भक्ति पर बल दिया । इन्होंने समाज के सभी लोगों के बीच अपने

मत का प्रचार किया । भक्त संतों का आम जनों से सीधा संबंध था । फलतः लोगों ने इनके सम्मान में मंदिरों का निर्माण किया तथा इनकी जीवनियाँ लिखीं।

भक्ति काल में ही महान दार्शनिक आदि शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ। … अपनी 32 वर्ष की अल्पाआयु में इन्होंने भारत के चारों ओर मठों का निर्माण

कराया, जिससे देश की एकता हर तरह से बनी रहे । शंकराचार्य ने उत्तर में बद्रीकाश्रम, दक्षिण में शृंगेरी मठ, पूरब में पुरी तथा पश्चिम में द्वारिका मठ का निर्माण कराया और वहाँ पुजारियों को नियुक्त किया । शंकराचार्य अद्वैतवादी सिद्धांत के प्रतिपादक थे। उनका मानना था कि केवल ब्रह्म ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या हैं। इनके मत को रामानुज ने आगे बढ़ाया।

दक्षिण भारत में ‘वीरशैव’ आन्दोलन शुरू हुआ । इन्होंने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध निम्न जातियों और नारियों के प्रति समर.कदी विचार प्रस्तुत किये । मूर्तिपूजा और कर्मकाण्डों का विरोध किया गया । रामानुज के विचार सम्पूर्ण दक्षिण भारत से लेकर महाराष्ट्र तक फैल गया ।

महाराष्ट्र की वैष्णव भक्ति की धारा में 13वीं सदी के नामदेव से 17वीं सदी के तुकाराम तक भक्तों की एक समृद्ध परम्परा देखने को मिलती है। इन लोगों ने ईश्वर के प्रति श्रद्धा, भक्ति और प्रेम के सिद्धान्त का प्रचार किया। इन्होंने मूर्ति पूजा, तीर्थ, कर्मकाण्ड आदि का खण्डन किया, ऊँच-नीच के भेद-भाव का विरोध किया तथा अपने अनुयायियों में सभी जाति के लोगों, महिलाओं और मुसलमानों को भी शामिल किया ।

तेरहवीं सदी के बाद उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन सुधारवादी आन्दोलन में बदल गया। इस आधार पर ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म, इस्लाम, सूफी संतों एवं तत्कालिन धार्मिक सम्प्रदायों नाथ पंथियों, सिद्धों तथा योगियों आदि की विचारधाराओं को स्पष्ट झलक देखने को मिलती है । इसमें सूफी संतों का भी योग था ।

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रामानुज की भक्ति परम्परा को उत्तर भारत में लोकप्रिय बनाने का श्रेय रामानन्द को है । कबीर रामानन्द को ही अपना गुरु मानते थे । कबीर ने इनके मत के प्रचार के लिये बहुत कुछ किया । जाति-पाति और धर्म आदि सबसे ऊपर उठकर कबीर ने कहा : “जात-पात पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सी हरि को होई ।”

सगुण सम्प्रदाय वाले राम को विष्णु का अवतार मानते हैं, जबकि निर्गुण सम्प्रदाय वाले ईश्वर की कल्पना निराकार ब्रह्म के रूप में करते हैं । सगुण सम्प्रदाय के प्रमुख संत तुलसी दास थे। वैष्णव धर्म की परम्परा में कृष्ण भक्तों की भी अच्छी जमात है। इस परम्परा के प्रमुख कवि थे मीरा बाई, चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, रसखान आदि ।

कबोर ने ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म और इस्लाम-दोनों के ब्राह्मडबर तथा कार्यकलापों की निन्दा की । कबीर के समकालीन गुरुनानक थे । ये भी सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों के विरोधी थे। इनको मानने वाले ‘सिक्ख’ कहलाते हैं । एसे संतों में दरिया साहब भी एक प्रमुख संत थे । बिहार के शाहाबाद क्षेत्र में इन्होंने अपने मत का प्रचार किया । ये भी एकेश्वरवादी थे। इन्हें मानने वाले वाराणसी तक में थे ।

सूफीवाद के तहत रहस्यवाद की भावना का अर्थ था कि ईश्वर के रहस्य को जानने का प्रयास करना । भक्त संतों तथा सूफी संतों में काफी समानता थी। सूफी संतों ने मूर्ति पूजा को अस्वीकार किया और एकेश्वरवाद को माना ।

इस्लाम ने शरियत एवं नमाज को प्रधानता दी. जबकि सफी ईश्वर के साथ किसी की परवाह किये बगैर वैसे ही जुड़ा रहना चाहते थे जिस प्रकार बच्चा अपनी माँ से ।

भारत में सबसे पहले सूफी खानकाह की स्थापना का श्रेय सुहरावर्दी परम्परा के संत बहाउद्दीन जकरिया को है । इस परम्परा के संतों ने राजकीय सहयोग से सुखमय जीवन व्यतीत किया और धर्मान्तरण को बढ़ावा दिया ।

खानकाह शिक्षा के महत्वपूर्ण केन्द्र थे । यहाँ अरबी और फारसी की शिक्षा दी जाती थी। यहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों शिक्षा पाते थे । फुलवारी शरीफ का खानकाह बहुत प्रसिद्ध था । यहाँ की लाइब्रेरी अत्यंत समृद्ध है और यहाँ पाण्डुलिपियों का अम्बार है। देश-विदेश के शोधकर्ता यहाँ आते थे और आते हैं।

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भारत में चिश्ती परम्परा भी काफी लोकप्रिय हुई । इसकी स्थापना अजमेर, शरीफ में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने की थी। इस परम्परा के महत्त्वपूर्ण चिश्ती थे राजस्थान के हमीदुद्दीन नागोरी, दिल्ली के ख्वाजा निजामद्दीन औलिया । निजामुद्दीन औलिया को इस सम्प्रदाय के फैलाने का श्रेय दिया जाता है।

भारत की मिली-जुली संस्कृति को बिहार में मजबूत करने का काम मनेरी साहब ने किया। इन्होंने समन्वयवादी संस्कृति के निर्माण का सक्रिय प्रयास किया। मनेरी साहब ने मनेर से सुनार गाँव की यात्रा की और ज्ञानार्जन किया । इन्होंने राजगीर एवं बिहार शरीफ में तपस्या की और धर्म प्रचार किया । मनेरी साहब का मजार बिहार शरीफ में है ।

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