MP Board Class 11th Hindi Book Solutions हिंदी मकरंद, स्वाति Chapter 4 नीति – NCERT पर आधारित Text Book Questions and Answers Notes, pdf, Summary, व्याख्या, वर्णन में बहुत सरल भाषा का प्रयोग किया गया है.
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 4 नीति
प्रश्न 1.
बिना उपयुक्त अवसर के कही गई बात कैसी लगती है? (2015)
उत्तर:
बात करते समय अवसर के अनुरूप बात करनी चाहिए जैसे विवाह के समय दी हुई गालियाँ भी मन को प्रसन्न करती हैं। इसी प्रकार युद्ध के प्रसंग में श्रृंगार रस की बात अच्छी नहीं लगती है। अतः प्रसंगानुकूल ही बात करनी चाहिए।
प्रश्न 2.
ऐसी कौन-सी सम्पत्ति है जो व्यय करने पर बड़ती है? (2009)
उत्तर:
सरस्वती का कोश (विद्या धन) ऐसी सम्पत्ति है जो व्यय करने पर सदैव बढ़ती है।
प्रश्न 3.
सुख और दुःख को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए?
उत्तर:
सुख और दुःख को बड़ी शान्ति से ग्रहण करना चाहिए जिस प्रकार कि उदय होता हुआ चन्द्रमा और अस्त होता हुआ चन्द्रमा एक-सा होता है।
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नीति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
किस उदाहरण के द्वारा कवि ने यह बताया है कि कोई बुरी चीज यदि भले स्थान पर स्थित हो, तो भली लगती है?
उत्तर:
कवि ने काजल के माध्यम से बताया है कि यद्यपि काजल में मलिनता होती है। परन्तु उचित स्थान पर प्रयोग करने से उसका महत्त्व बढ़ जाता है।
प्रश्न 2.
वृक्ष के माध्यम से कवि क्या संदेश देता है? (2015, 17)
उत्तर:
वृक्ष के माध्यम से कवि ने संदेश दिया है कि सज्जन व्यक्ति दूसरों की भलाई के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं।
प्रश्न 3.
रहीम ने ‘विपदा’ को भला क्यों कहा है? (2011, 14)
उत्तर:
रहीम ने ‘विपदा’ को इसलिए भला कहा है क्योंकि विपत्ति आने पर ही संसार में अच्छे और बुरे व्यक्ति की पहचान हो पाती है। सुख में तो सभी साथ देते हैं परन्तु विपत्ति पड़ने पर जो साथ दे वही सच्चा मित्र या व्यक्ति होता है।
प्रश्न 4.
अच्छे लोग सम्पत्ति का संचय किसलिए करते हैं?(2016)
उत्तर:
अच्छे लोग सम्पत्ति का संचय दूसरों के लिए करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपने फल नहीं खाते हैं, तालाब अपना जल स्वयं नहीं पीते हैं, उसी प्रकार सज्जन भी सम्पत्ति का संचय परहित (दूसरों के हित) के लिए ही करते हैं।
नीति दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
वृन्द के संकलित दोहों के आधार पर उनके ‘नीति’ सम्बन्धी विचार दीजिए। (2012)
उत्तर:
महाकवि वृन्द ने जीवन के सम्बन्ध में गहन अनुभव किये हैं। उसी के अनुसार उन्होंने अपने दोहे में कहा है कि अवसर के अनुरूप ही सोच-समक्ष कर बात करनी चाहिए। किस अवसर पर किस प्रकार की बात करें यह अधोलिखित दोहे से स्पष्ट होता है-
फीकी पैनीकी लगै, कहिये समय विचारि।
सबको मन हर्षित करै, ज्यों विवाह में गारि ।।
नीकी पै फीकी लगै, बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में, रस शृंगार न सुहात ।।
अन्य दोहे में कवि ने कपट युक्त व्यवहार के विषय में कहा है कि-
जैसे हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार।
कपट करने से व्यक्ति का विश्वास नष्ट हो जाता है, फिर चाहे वह कितना भी अच्छा व्यवहार करे, कोई भी उसकी बात का विश्वास नहीं करेगा।
कवि वृन्द ने कहा है कि मूर्ख व्यक्ति को धैर्यवान होना चाहिए। समयानुसार कार्य पूर्ण होता है जिस प्रकार-
कारज धीरै होतु है, काहै होत अधीर।
समय पाय तरुवर फलै. केतक सींचो नीर।।
इसी प्रकार कवि ने कहा है कि मूर्ख व्यक्ति को सम्पत्ति देना व्यर्थ है क्योंकि मूर्ख व्यक्ति सम्पत्ति के महत्त्व को नहीं जानता है। उदाहरण देखें-
कहा कहाँ विधि को अविधि, भूले परे प्रबीन।
मूरख को सम्पत्ति दई, पंडित सम्पत्ति हीन।।
कवि ने सरस्वती के कोश को अपूर्व बताया है और कहा है कि एकमात्र यही धन ऐसा है जो खर्च करने से बढ़ता है और संचय करने से घटता है। उदाहरण देखें-
सरस्वति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात।
ज्यों खरचै त्यों-त्यों बढ़े, बिन खरचै घट जात।।
कवि ने एक अन्य दोहे में यह नीति की बात समझायी है। व्यक्ति के नेत्रों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह आपका हितैषी है या नहीं है जिस प्रकार दर्पण में व्यक्ति की अच्छाई-बुराई स्पष्ट दिखाई देती है, उसी प्रकार नेत्र भी अच्छे-बुरे का भाव प्रकार करते हैं। उदाहरण में देखें-
“नयना देत बताय सब, हिय को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, भली बुरी कहि देत।।”
इस प्रकार कवि वृन्द ने व्यक्ति, समाज, परिवार अच्छे-बुरे व्यवहार सम्बन्धी बातें नीति सम्बन्धी दोहों में कही हैं। ओछे व्यक्ति के सम्बन्ध में वृन्द कवि के विचार देखें-
“ओछे नर के पेट में, रहै न मोटी बात” इस प्रकार कवि ने विभिन्न नीतिपरक दोहों द्वारा मानव को शिक्षा दी हैं।
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प्रश्न 2.
वृन्द की किन शिक्षाओं को आप जीवन में अपनाना चाहेंगे?
उत्तर:
महाकवि वृन्द के दोहे जीवन-शिक्षा के लिए अपूर्व भंडार हैं। उनके द्वारा लिखा गया प्रत्येक दोहा मानव जीवन के किसी न किसी लक्ष्य को परिलक्षित करता है। कभी-कभी कवियों के द्वारा कही गयी शिक्षाप्रद बातें मानव को जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देती हैं।
नीतिपरक दोहों के माध्यम से मानव को समयानुरूप बात करने की प्रेरणा मिलती है। वाणी का उचित अवसर का प्रयोग करके व्यक्ति सफलता प्राप्त कर सकता है।
कार्य करते समय धैर्य धारण करके ही कार्य करना चाहिए। क्योंकि कार्य करते समय जल्दबाजी उचित नहीं होती है। मूर्ख या अज्ञानी व्यक्ति को कभी भी उसके हित की बात नहीं समझानी चाहिए। क्योंकि वह व्यक्ति अर्थ का अनर्थ कर देता है।
उदाहरण देखें-
हितहू की कहिये न तिहि, जो नर होय अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाये क्रोध।।
इसी प्रकार कवि ने सरस्वती के कोश के विषय में बताया है कि यह सरस्वती का खजाना अनूठा है जो कि व्यय करने पर बढ़ता है। इस अपूर्व धन को मानव को निरन्तर व्यय करते रहना चाहिए।
इसके अतिरिक्त कवि ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने मन की बात नहीं बतानी चाहिए क्योंकि ओछे व्यक्ति के मन में कभी भी बात पचती नहीं है। उदाहरण देखें-
“ओछे नर के पेट में, रहै न मोटी बात।
आध सेर के पात्र में, कैसे सेर समात।।
इस प्रकार के सुन्दर दोहों के द्वारा कवि वृन्द ने मानव को उन्नति के पथ पर बढ़ने के लिए प्रेरित किया है।
प्रश्न 3.
‘जो रहीम ओछौ बढ़े तो अति ही इतराय’ इस पंक्ति के द्वारा रहीम क्या कहना चाहते हैं?
उत्तर:
इस पंक्ति के द्वारा रहीम कवि ने निम्न श्रेणी के व्यक्ति के विषय में बताया है कि व्यक्ति यदि छोटे पद से अचानक ही बड़े पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है तो वह इठलाता है। ऐसी प्रवृत्ति केवल उन व्यक्तियों में होती है जिनके पास कुछ भी न हो और अचानक बहुत-सा धन सम्पत्ति या सम्मानित पद मिल जाये तो वे घमण्ड का अनुभव करते हैं। अपने गर्व से चूर होकर वे किसी से बात करना भी पसन्द नहीं करते। ऐसी प्रवृत्ति ओछे व्यक्तियों में ही होती है। अपने इस दोहे के माध्यम से कवि ने ओछे व्यक्ति की मानसिकता को इस प्रकार व्यक्त किया है-
“प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय।”
कवि ने मानव को इस पंक्ति के माध्यम से बताया है कि व्यक्ति को उच्च पद पर प्रतिष्ठित होने पर इतराना नहीं चाहिए। इससे व्यक्ति का ओछापन प्रतीत होता है।
व्यक्ति को सम्पत्ति अथवा सत्ता प्राप्त हो जाने पर घमण्ड नहीं करना चाहिए। यदि मानव घमण्ड करता है तो यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं कही जायेगी।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित पंक्तियों की व्याख्या कीजिए-
(अ) कौन बड़ाई जलधि मिलि गंग नाम भौं धीम।
केहि की प्रभुता नहि घटी, पर घर गये रहीम।।
(आ) सरस्वति के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
ज्यों खरचै त्यौं त्यौं बदै, बिन खरचै घट जात।।
उत्तर:
उपर्युक्त पंक्तियों की व्याख्या सन्दर्भ सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग में देखिए।
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नीति काव्य सौन्दर्य
प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिएसरवर, आंगुर, गुनी, अपूरब, खरचै, ओड़े।
उत्तर:
तत्सम शब्द-सरोवर, आंगुल, गुणी, अपूर्व, खर्चे, ओढ़े।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों के अलंकार पहचानिए
(अ) ज्यों खरचै त्यों त्यों बढ़े, बिन खरचे घट जात।
(आ) दीन सबन को लखत हैं, दीनहि लखै न कोय।
(इ) साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम।
(ई) कहि रहीम परकाज हित, सम्पत्ति संचहि सुजान।
उत्तर:
(अ) विरोधाभास अलंकार।
(आ) पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।
(इ) स्वभावोक्ति अलंकार।
(ई) अनुप्रास अलंकार।
प्रश्न 3.
निम्नलिखित छंदों में मात्राएँ गिनकर छन्द की पहचान कीजिए
(अ) कारज धीरै होतु है, काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फलै, केतक सींचौ नीर।।
(आ) नयना देत बताय सब, हिय को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, भली बुरी कहि देत।।
उत्तर:
(अ) ऽ।। ऽऽ ऽ। ऽ ऽ ऽ ऽ।।ऽ । (13-11)
कारज धीरे होतु है, काहे होत अधीर।
।।। ऽ ।।।।। । ऽ ऽ ।। ऽ ऽ ऽ । (13-11)
समय पाय तरुवर फलै, केतक सींचौ नीर।।
(आ) ।। ऽ ऽ।।ऽ।।। ।। ऽ ऽ। । ऽ । (13-11)
नयना देत बताय सब, हिय को हेत अहेत।
ऽ ऽ ऽ ।। ऽ । ऽ । ऽ । ऽ ।। ऽ । (13-11)
जैसे निर्मल आरसी, भली बुरी कहि देत।।
उपर्युक्त दोनों छन्दों के प्रथम व तृतीय छन्द में 13-13 तथा द्वितीय व चतुर्थ छन्द में 11-11 मात्राएँ हैं जोकि दोहा छन्द की विशेषता है। अतः दोनों दोहा छन्द हैं।
प्रश्न 4.
रहीम के संकलित दोहों में से प्रसाद गुण सम्पन्न दोहे छाँटकर लिखिए
उत्तर:
(1) तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।
(2) रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट्र बै जात।
नारायण हूँ को भयो, बावन आँगुर गात।।
(3) रहिमन मनहिं लगाइ के, देखि लेहु किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय।।
(4) भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप।
रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखौ तो एकै रूप।।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित काव्यांश में अलंकार पहचानिए
(क) सुनहू देव रघुवीर कृपाला, बन्धु न होइ मोरि यह काला।
(ख) या अनुरागी चित्त की, गति समझे नहिं कोई।
ज्यों ज्यों बूढे स्याम रंग, त्यों त्यों उज्ज्वल होई।।
उत्तर:
(क) अपहृति।
(ख) विरोधाभास।
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वृन्द के दोहे भाव सारांश
कवि वृन्द ने अपने दोहों के माध्यम से मनुष्य को नीति की शिक्षा दी है। उन्होंने इन दोहों में बताया है कि मनुष्य को किसी से भी बात करने से पूर्व उचित अवसर देखना चाहिए। किसी को धोखा नहीं देना चाहिए। ऐसा करके व्यक्ति एक बार तो सफलता पा लेगा, किन्तु फिर कभी जीवन में सफल नहीं हो सकता। मूढ़ व्यक्ति से यदि उसके हित की बात करो तो वह भी उसे विष समान लगती है। इसलिए जो सुनने को तैयार न हो उससे उसके हित की बात नहीं करनी चाहिए। सरस्वती का ज्ञान कोष अपूर्व है। इसे जितना ही व्यय किया जाए वह उतना ही वृद्धि करता है। उचित स्थान पर तुच्छ और मलिन वस्तु भी शोभा देती है। जैसे नारी के नेत्रों में लगा हुआ काजल मलिन होते हुए भी अत्यन्त सुशोभित होता है।
वृन्द के दोहे संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या
फीकी पै नीकी लगै, कहिये समय विचारि।
सबको मन हर्षित करै, ज्यों विवाह में गारि।। (1)
शब्दार्थ :
फीकी = स्वादहीन; नीकी = अच्छी; विचारि = सोच, समझकर; हर्षित = प्रसन्न; विवाह = एक संस्कार; गारि = गाली।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत दोहा ‘नीति’ पाठ के अन्तर्गत ‘वृन्द के दोहे’ शीर्षक से अवतरित है, इसके रचनाकार ‘वृन्द’ हैं।
प्रसंग :
इस दोहे में वृन्द ने यह बताया है कि किसी भी बात को समय देखकर कहना चाहिए। इससे उस बात का महत्व बढ़ जाता है।
व्याख्या :
वृन्द कवि का कथन है कि बात चाहे नीरस या कड़वी हो उसे उचित समय पर ही बोलना चाहिए इससे सुनने वाले को बात अच्छी लगेगी। जैसे विवाह के अवसर पर जो गाली गाई जाती हैं वे उसका आनन्द बढ़ा देती हैं। जबकि यदि क्रोध में कोई गाली दे तो विवाद उत्पन्न हो जाता है।
काव्य सौन्दर्य :
यहाँ कवि ने लोक-व्यवहार बताया है। उचित अवसर पर कई बार खराब बात भी अच्छी लगती है।
फीकी नीकी ………. में अनुप्रास अलंकार है।
दोहे में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
नीकी पै फीकी लगै, बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में, रस शृंगार न सुहात।। (2)
शब्दार्थ :
अवसर = मौका; युद्ध = लड़ाई; सुहात = अच्छा लगता है।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि अच्छी बात को भी समय देखकर बोलने का सुझाव देता है।
व्याख्या :
कवि कहता है कि अच्छी बात भी समय को देखकर ही करनी चाहिए अथवा उस बात का कोई महत्व नहीं रह जाता। जैसे रणभूमि में वीर रस के गीत छोड़कर शृंगार रस के गीत गाए जाएँ तो वह महत्वहीन ही सिद्ध होंगे।
काव्य सौन्दर्य :
लोक-व्यवहार के सत्य को उद्घाटित किया है।
अनुप्रास और उपमा अलंकार का प्रयोग द्रष्टव्य है।
जो जेहि भावे सौ भलौ, गुन को कछु न विचार।
तज गजमुक्ता भीलनी, पहिरिति गुजाहार।। (3)
शब्दार्थ :
भावे = अच्छा लगना; गुन = गुण; तज= छोड़ना; गजमुक्ता = हाथी के मस्तक से निकलने वाला मोती।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ कवि ने बताया है कि जो वस्तु जिसे पसन्द होती है वही उसके लिए श्रेष्ठ होती है चाहे वह कितनी ही कम मूल्य की वस्तु क्यों न हो।
व्याख्या :
जो जिसको रुचिकर लगे वही अच्छा है। इसमें उस वस्तु के गुण-अवगुण अथवा मूल्य का कोई विचार नहीं होता है क्योंकि भीलनी गजमुक्ता को त्यागकर गुजाफल का हार पहनना ही पसन्द करती है।
काव्य सौन्दर्य :
दोहा छन्द है।
ब्रजभाषा में सरल, सरस भाषा शैली है।
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फेर न हवै है कपट सो, जो कीजै व्यौपार।
जैसे हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार।। (4)
शब्दार्थ :
कपट = छल; हांडी = बरतन; दूजी = दूसरी।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने व्यापार में कपट नीति का परित्याग करने को बताया है।
व्याख्या :
यदि व्यापार करना है तो कपट व्यवहार त्याग देना चाहिए। क्योंकि यदि कपट व्यवहार किया जाता है तो उसका व्यापार पुनः उसी प्रकार नहीं चल सकता; जिस प्रकार काठ की हँडिया चूल्हे पर पुनः नहीं चढ़ाई जा सकती।
काव्य सौन्दर्य :
लोक-व्यवहार का सत्य उद्घाटित किया गया है।
ब्रजभाषा में सरस, सरल और प्रवाहमयी शैली है।
काठ की हांडी चढे न दूजी बार-लोकोक्ति का प्रयोग है।
नयना देय बताय सब, हिय को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, भली बुरी कहि देत।। (5)
शब्दार्थ :
नयना = नेत्र; हिय = भलाई; अहेत = बुराई; निर्मल पवित्र; आरसी = दर्पण।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने बताया है कि मनुष्य के नेत्र उसके हृदय की बात को दूसरे के सम्मुख प्रकट कर देते हैं।
व्याख्या :
नेत्र हृदय के हित अथवा अनहित सभी प्रकार के भावों को व्यक्त कर देते हैं जिस प्रकार से स्वच्छ दर्पण हमारे चेहरे के सुन्दर अथवा कुरूपत्व सभी प्रकार के स्वरूप को व्यक्त कर देता है।
काव्य सौन्दर्य :
लोक-व्यवहार की सच्चाई का उद्घाटन है।
ब्रजभाषा में दोहा छन्द है।
हेत अहेत देत में अनुप्रास अलंकार है।
हितह की कहिये न तिहि, जो नर होय अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाये क्रोध।। (6)
शब्दार्थ :
तिहि = उससे; नर = मनुष्य; अबोध = नासमझ।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने कहा है कि जो व्यक्ति अपने हित की बात नहीं सुनना चाहता उससे वह बात नहीं कहनी चाहिए।
व्याख्या :
यदि मनुष्य अबोध, अज्ञानी अथवा समझने वाला न हो तो उससे उसके हित की बात नहीं कहनी चाहिए। क्योंकि नाक कटे हुए व्यक्ति को दर्पण दिखाकर यदि उसका वास्तविक स्वरूप दिखाया जाए तो वह क्रोधित ही हो उठेगा।
काव्य सौन्दर्य :
जीवन के लिए आवश्यक नीति वचन है।
ब्रजभाषा में दोहा छन्द है। उत्प्रेक्षा अलंकार है।
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कारज धीरै होतु है, काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फलै, केतक सींचो नीर।। (7) (2011, 16)
शब्दार्थ :
कारज = कार्य; तरुवर = वृक्ष; केतक = कितना; नीर = जल।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ कवि ने बताया है कि मनुष्य को उसके कार्य का फल तुरन्त नहीं मिल जाता, इसके लिए उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
व्याख्या :
कवि का कथन है कि संसार में कार्य धीरे-धीरे ही फलीभूत होते हैं। इसलिए धैर्य न खोकर समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए क्योंकि मौसम आने पर ही वृक्ष फल देते हैं। इससे पूर्व चाहे उन्हें कितना ही पानी देकर सींच लो, समय से पूर्व वे फल नहीं देते।
काव्य सौन्दर्य :
ब्रजभाषा में सरस, सरल भाषा शैली है।
दृष्टान्त अलंकार है।
ओछे नर के पेट में रहे न मोटी बात।
आध सेर के पात्र में कैसे सेर समात।। (8)
शब्दार्थ :
ओछे = नीच; मोटी बात = गम्भीर बात; सेर = पुराने जमाने का एक तौल (एक किलो)।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने तुच्छ मनुष्यों के स्वभाव के विषय में बतलाया है।
व्याख्या :
तुच्छ मनुष्य के पेट में गम्भीर बात नहीं पचती अर्थात् वह किसी रहस्य को रहस्य बनाकर नहीं रख सकता, तुरन्त दूसरों से उस बात को उगल देता है। कवि कहता है कि भला आधा सेर (किलो) के बरतन में एक सेर सामान कैसे आ सकता है अर्थात् जैसा पात्र होता है उसी प्रकार की बात उसके स्तर की होती है।
काव्य सौन्दर्य :
दृष्टान्त अलंकार, ब्रजभाषा, प्रसाद गुण, सहज, सरल शैली का प्रयोग है।
लोक-व्यवहार के सत्य का उद्घाटन है।
कहा कहौं विधि की अविधि, भूले परे प्रवीन।
मूरख को सम्पत्ति दई, पंडित सम्पत्ति हीन।। (9)
शब्दार्थ :
विधि = विधाता; अविधि = उल्टा, विधि रहित; प्रवीन = विद्वान। सन्दर्भ-पूर्ववत्। प्रसंग-यहाँ पर कवि ने विधि की विडम्बना का उल्लेख किया है।
व्याख्या :
कवि कहता है कि विधाता की विधिरहित भाग्य रचना को क्या कहा जाए? वह प्रवीणों (बुद्धिमानों) को भूल गया है क्योंकि उसने मूरों को तो सम्पत्ति दी है और ज्ञानियों को सम्पत्तिहीन रखा है।
काव्य सौन्दर्य :
ब्रजभाषा में दोहा छन्द है।
प्रतीप अलंकार है।
सरस्वति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात।।
ज्यों खरचै त्यों-त्यों बढ़े, बिन खरचै घट जात।। (10) (2011)
शब्दार्थ :
अपूरब = अपूर्व, अनोखी; घट जात = कम हो जाता है।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने सरस्वती के भंडार की विशेषताएँ बताई हैं।
व्याख्या :
सरस्वती (ज्ञान) के भण्डार की तो बड़ी अनोखी बात है कि इस भण्डार को तो जैसे-जैसे खर्च करो वैसे-वैसे बढ़ता है और यदि नहीं खर्च करो तो कम होता जाता है।
काव्य सौन्दर्य :
दोहा छन्द है।
ब्रजभाषा है, भाषा शैली सरल, सहज व बोधगम्य है।
विरोधाभास अलंकार है।
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छमा खड्ग लीने रहे, खल को कहा बसाय।
अगिन परी तृनरहित थल, आपहिं ते बुझि जाय।। (11)
शब्दार्थ :
खड्ग = तलवार; खल = दुष्ट; बसाय = वश; तृन = तिनका, घास; थल = पृथ्वी।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने क्षमा की विशेषताएँ बताई हैं।
व्याख्या :
मनुष्य को सदैव क्षमा रूपी तलवार को लिए रहना चाहिए इस पर दुष्ट का कोई वश नहीं चलता। जैसे तिनका रहित भूमि पर यदि आग लग जाए तो वह स्वयं ही बुझ जाती है।
काव्य सौन्दर्य :
छमा खड्ग में रूपक अलंकार है।
द्वितीय पंक्ति में दृष्टान्त अलंकार है।
बुरौ तऊ लागत भलो, भली ठौर परलीन।
तिय नैननि नीको लगै, काजर जदपि मलीन।। (12)
शब्दार्थ :
तऊ = तब भी; तिय = स्त्री; नीको = अच्छा; जदपि = यद्यपि; मलीन = काला।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने बताया है कि सही स्थान पर तुच्छ वस्तु भी भली लगती है।
व्याख्या :
यदि कोई वस्तु बुरी अथवा महत्वहीन हो किन्तु यदि वह उचित स्थान पर है तो वह भली लगती है जैसे काजल यद्यपि मलिन होता है किन्तु स्त्री के नेत्रों में वह अत्यन्त सुन्दर लगता है।
काव्य सौन्दर्य :
ब्रजभाषा में रचित दोहा छन्द है।
नैननि नीको अनुप्रास अलंकार है।
रहीम के दोहे भाव सारांश
प्रस्तुत दोहों में रहीम ने बताया है कि सुख और दुःख में मनुष्य को समान भाव रखना चाहिए। सज्जन परोपकार के लिए सम्पत्ति का संचय करते हैं। धन कम हो अथवा अधिक हो इसका प्रभाव केवल धनिक वर्ग पर पड़ता है। घास पत्ते बेचने वाले तो सदैव एक जैसे ही रहते हैं। दीनबन्धु जैसा बनने के लिए दीनों की ओर देखना भी आवश्यक है, दूसरों के घर में रहने वाला अपनी गरिमा खो बैठता है। यदि थोड़े दिन विपदा के हों तो ठीक है। इससे कौन हमारा हितैषी है और कौन शत्रु, इसकी पहचान हो जाती है। इस प्रकार, रहीम के दोहे जीवन के अमूल्य रत्न हैं। ये जीवन में पग-पग पर मनुष्य का मार्ग निर्देशित करते हैं।
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रहीम के दोहे संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या
यों रहीम सुख दुख सहत, बड़े लोग सह साँति।
उदत चन्द जेहि भाँति सो, अथवत ताही भाँति।। (1)
शब्दार्थ :
साँति = शान्ति; उदत = उदित होता हुआ; अथवत = अस्त होता हुआ।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत दोहा ‘नीति’ पाठ के अन्तर्गत ‘रहीम के दोहे’ से उद्धृत किया गया है। इसके रचयिता रहीम हैं।
प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने बताया है कि महान् लोग सुख और दुःख दोनों में समान भाव से शान्तिपूर्वक रहते हैं।
व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि महान् लोग सुख और दुःख को शान्तिपूर्वक उसी प्रकार से सहन करते हैं। जिस प्रकार से चन्द्रमा उदय होने पर जैसा रहता है, अस्त होने पर भी वह वैसा ही रहता है।
काव्य सौन्दर्य :
यहाँ कवि ने दुःख-सुख में शान्त रहने का उपदेश दिया है। गीता में भी कहा है ‘सुखे दुःखे समे कृत्वा।’
प्रस्तुत दोहे में चन्द्रमा के उदय और अस्त होने की एकरूपता बताई गई है। इसी प्रकार अन्यत्र महापुरुषों को सूर्य की भाँति बताया है-
उदयति सविता ताम्रो ताम्रोएव अस्तमेति।
सम्पत्तौ च विपत्तौ महतां एकरूपताम्।।
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पिवहिं न पान।
कहि रहीम परकाज हित संपति संचहि सुजान।। (2) (2008)
शब्दार्थ :
तरुवर = वृक्ष; सरवर = सरोवर, नदी; पान = पानी; परकाज- दूसरों के हित के लिए; संचहि = एकत्र करते हैं; सुजान = सज्जन।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस दोहे में रहीम ने परोपकार के महत्त्व को बताया है।
व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार वृक्ष कभी अपने फल स्वयं नहीं खाते, सरोवर अपना जल नहीं पीता। उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति भी दूसरों की भलाई के लिए ही सम्पचि का संचय करते हैं।
काव्य सौन्दर्य :
भावसाम्य-“वृक्ष कबहूँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर
परमारथ के कारने साधुन धरा सरीर।”
दृष्टान्त अलंकार है। ब्रजभाषा का प्रयोग है।
दोहा छन्द है।
कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात।
घटै बट्टै उनको कहा घास बेचि जो खात।। (3)
शब्दार्थ :
धनिन = धनिको; कहा = क्या मतलब।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में रहीम ने बताया है कि धन बढ़कर कम होने का प्रभाव केवल धनिक वर्ग पर पड़ता है, निर्धन वर्ग पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि धन बढ़कर कम हो जाए तो इसका प्रभाव धनिक वर्ग पर पड़ता है। धन घटे या बढ़े इसका उन लोगों पर क्या प्रभाव पड़ेगा जो घास बेचकर अपनी रोजीरोटी कमाते हैं अर्थात् उनके लिए सभी दिन एक समान हैं वे तो सदा निर्धन के निर्धन ही हैं।
काव्य सौन्दर्य :
लोक व्यवहार के सत्य का उद्घाटन।
ब्रजभाषा है। दोहा छन्द है।
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बड़ माया को दोष यह, जो कबहू घटि जाय।
तो रहीम मरिबो भलो, दुख सहि जिये बलाय।। (4)
शब्दार्थ :
माया = धनसम्पत्ति, भौतिक पदार्थ; मरिबो = मरना।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने धन सम्पत्ति रूपी गया के दोष को बताया है।
व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि माया का यह सबसे बड़ा दोष है कि यदि वह कम हो जाए तो लोग मरना पसन्द करते हैं; दुख सहकर वे जीना नहीं चाहते।
काव्य सौन्दर्य:
दोहा छन्द है। ब्रजभाषा का प्रयोग है।
लोक सत्य का उद्घाटन।
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट बै जाति।
नारायण हू को भयो बावन आँगुर गात।। (5)
शब्दार्थ :
याचकता = माँगने की प्रवृत्ति; गहे = ग्रहण करने से; गात = शरीर। सन्दर्भ-पूर्ववत्। प्रसंग-रहीम ने यहाँ पर माँगने के अवगुण के प्रभाव को बताया है।
व्याख्या :
रहीम जी कहते हैं कि माँगने की प्रवृत्ति को ग्रहण करने से बड़े लोग भी छोटे हो जाते हैं। जैसे नारायण ने जब बलि से भिक्षा माँगी तो उनका शरीर भी बावन अंगुल का हो गया था।
काव्य सौन्दर्य :
लोक सत्य का उद्घाटन।
दोहा छन्द, ब्रजभाषा का प्रयोग।
दृष्टान्त अलंकार है।
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।। (6)
शब्दार्थ :
दीन = दीन हीन; लखत – देखते हैं; दीनबन्धु = भगवान, परमात्मा।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में रहीम ने कहा है कि दीन दुखियों के दुःख को समझने वाला मनुष्य ईश्वर के समान हो जाता है।
व्याख्या :
दीन मनुष्य अपनी दीनता भरी दृष्टि से सबको देखता रहता है (कि कोई उसकी सहायता कर दे) किन्तु दीन व्यक्ति को कोई नहीं देखता। रहीम कहते हैं कि जो मनुष्य दीनों को देखता है, वह दीनबन्धु परमेश्वर के समान हो जाता है।
काव्य सौन्दर्य :
संसार के सत्य का उद्घाटन।
दीनों पर दया करने का संदेश दिया गया है।
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जो रहीम ओछो बढै, तो अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढो-टेढो जाय।। (7)
शब्दार्थ :
ओछो = तुच्छ, नीच; इतराय = घमंड में अकड़ना।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर रहीम ने तुच्छ व्यक्ति के स्वभाव के विषय में बताया है।
व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि यदि तुच्छ प्रवृत्ति वाला व्यक्ति ऊँची पदवी प्राप्त कर ले तो वह बहुत घमंडी हो जाता है। पैदल चलने वाला व्यक्ति यदि फरजी हो जाए तो वह टेढ़ी-टेढ़ी चाल ही चलता है। जैसाकि शतरंज के खेल में फरजी हमेशा टेढ़ी-टेढ़ी चाल चलता है।
काव्य सौन्दर्य :
नीच व्यक्ति की मानसिकता का वर्णन है।
दृष्टान्त अलंकार और दोहा छन्द है।
कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भौं धीम।
केहि की प्रभुता नहि घटी, पर घर गये रहीम।। (8)
शब्दार्थ :
बढ़ाई = प्रशंसा; जलधि = समुद्र; धीम = धीमा; प्रभुता = सम्मान, गरिमा; पर घर = दूसरे के घर में।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने बताया है कि दूसरे के घर में रहने से मनुष्य की गरिमा समाप्त हो जाती है।
व्याख्या :
समुद्र में मिलकर गंगा को क्या श्रेष्ठता प्राप्त हुई अर्थात् कुछ नहीं। अपितु उसका नाम भी समाप्त हो गया। इसी प्रकार से दूसरे के घर में रहने पर किस मनुष्य की प्रभुता नहीं घटी अर्थात् सबकी घट जाती है।
काव्य सौन्दर्य :
यहाँ के लोक व्यवहार का वर्णन किया गया है।
दृष्टान्त अलंकार है।
दुरदिन परे रहीम कहि भूलत सब पहिचानि।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि।। (9)
शब्दार्थ :
दुरदिन = बुरे दिन; वित = धन; हित = मान-सम्मान।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने बताया है कि मनुष्य के बुरे दिन आने पर लोग उसे पहचानना भी बन्द कर देते हैं।
व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि अच्छे दिनों के साथी उसके बुरे दिन आने पर उसे पहचानते भी नहीं है। यह अत्यन्त कष्ट की बात है। धन की हानि होती है, तो कोई दुःख नहीं है। यदि हित (अथवा मान-सम्मान) की हानि होती है तो यह अत्यन्त कष्टदायी है।
काव्य सौन्दर्य :
प्रायः अच्छे दिनों के स्वार्थी मित्र बुरे समय पर साथ छोड़ देते हैं, इसलिए ऐसे लोगों का साथ छोड़ देना चाहिए।
दोहा छन्द ब्रजभाषा में निबद्ध है।
रहिमन मनहिं लगाय के देखि लहु किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय।। (10)
शब्दार्थ :
मनहिं लगाय के = एकाग्र चित्त करके; किन = क्यों न; नर = मनुष्य।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में रहीम ने बताया है कि संसार के सभी कार्य ईश्वर के अधीन हैं, मनुष्य का उन पर कोई वश नहीं चलता।
व्याख्या :
रहीमदास जी कहते हैं कि अपने मन को भली-भाँति एकाग्र करके चिन्तन कर लीजिए कि किसी भी कार्य में मनुष्य का कोई वश नहीं है, सब कुछ नारायण के वश में ही है।
काव्य सौन्दर्य :
प्रस्तुत दोहे में जीवन की वास्तविकता को व्यक्त किया गया है। तुलसीदास जी ने भी ऐसा ही कुछ कहा है-
उमा दारू जोषित की नाईं।
सबहि नचावत राम गोसाईं।।
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भूप गनत लघु गुणिन को, गुनी गनत लघु भूप।
रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखो तो एकै रूप।। (11)
शब्दार्थ :
भूप = राजा; गनत = गिनते हैं; लघु = छोटा; गुणिन = विद्वानों को; गिरि = पर्वत; लखो = देखो।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने बताया है कि संसार में कोई भी छोटा बड़ा नहीं है, सभी एक समान
व्याख्या :
राजा गुणियों (विद्वानों) को छोटा समझते हैं और विद्वान् राजाओं को छोटा गिनते हैं। रहीमदास जी कहते हैं कि यह उनका भ्रम है क्योंकि पर्वतों से लेकर समतल स्थान तक सारी पृथ्वी एक ही है, अलग-अलग नहीं है।
काव्य सौन्दर्य :
प्रस्तुत दोहे में रहीम ने जीवन का दार्शनिक पक्ष प्रस्तुत किया है। यहाँ कोई छोटा बड़ा नहीं, अपितु सभी समान हैं।
रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय।। (12) (2008)
शब्दार्थ :
विपदा = विपत्ति; हित-अनहित = हितैषी और शत्रु; जगत = संसार।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि कहता है कि बुरे और भले की पहचान के लिए यदि थोड़े दिन के कष्ट हों, तो वह भी श्रेयस्कर हैं।
व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि ऐसी विपत्ति भी अच्छी है जो थोड़े दिन के लिए आई हो, क्योंकि ऐसे में कौन हमारा हितैषी है और बुरा चाहने वाला है, उन सबकी पहचान हो जाती है।
काव्य सौन्दर्य :
जीवन के सत्य का उद्घाटन है। सच्चे मित्र की परख विपत्ति में ही होती है। अंग्रेजी में कहावत है-
A friend in need,
is a friend indeed.
अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलै न राम।। (13)
शब्दार्थ :
मुश्किल = कठिनाई; गाढ़े = कठिन।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर रहीम ने मनुष्य की कठिनाई के विषय में बताया है कि उसके जीवन के दो रास्ते हैं, किन्तु दोनों में ही कठिनाई है।
व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि यह बड़ी मुश्किल की घड़ी है जब उसके पास दो काम है और मनुष्य के लिए दोनों कार्य एक साथ करना कठिन हो जाता है। यदि वह सच बोलता है तो संसार में उसकी स्थिति अच्छी नहीं हो पाती और यदि झूठ बोलता है तो परमात्मा से वंचित हो जाता है।
काव्य सौन्दर्य :
यहाँ कवि ने दोहे के माध्यम से बताया है कि मनुष्य को संसार में जीने के लिए छल-प्रपंच और झूठ का सहारा लेना पड़ता है। किन्तु ऐसा करके वह परमात्मा से दूर हो जाता है। क्योंकि परमात्मा उन्हें प्राप्त होता है जिनका हृदय निर्मल और शुद्ध होता है और जो सदैव सत्य के मार्ग पर चलते हैं।