MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता

MP Board Class 10th Hindi Book Solutions हिंदी Chapter 7 सामाजिक समरसता- NCERT पर आधारित Text Book Questions and Answers Notes, pdf, Summary, व्याख्या, वर्णन में बहुत सरल भाषा का प्रयोग किया गया है.

MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता

प्रश्न 1.
लोहा किसकी श्वांस से भस्म हो जाता है?
उत्तर:
लोहा मरे हुए जानवर की खाल से बनी हुई मसक की श्वांस (हवा) से भस्म हो जाता है।

प्रश्न 2.
भक्ति किस प्रकार के प्राणियों से नहीं हो सकती?
उत्तर:
कामी, क्रोधी और लालची प्रकृति के प्राणियों से भक्ति नहीं हो सकती।

प्रश्न 3.
गुण लाख रुपये में कब बिकता है?
उत्तर:
गुण लाख रुपये में तब बिकता है जब उसे गुण का ग्राहक मिल जाता है।

प्रश्न 4.
संसार में विद्यमान सचर-अचर प्राणी क्या कर रहे हैं?
उत्तर:
संसार में विद्यमान जितने भी सचर या अचर प्राणी हैं, वे सभी अपने-अपने कर्मों में लगे हुए हैं।

प्रश्न 5.
दयामयी माता के तुल्य किसे माना गया है?
उत्तर:
दयामयी माता के तुल्य पृथ्वी को माना गया है।

प्रश्न 6.
जीवन को सफल बनाने के लिए कवि क्या निर्देश देते हैं?
उत्तर:
जीवन को सफल बनाने के लिए कवि ने मनुष्यों को अपने-अपने उद्देश्य में लगे रहने का निर्देश दिया है।

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सामाजिक समरसता लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर ईश्वर से क्या माँगते हैं?
उत्तर:
कबीर ईश्वर से यह माँगते हैं कि हे भगवान तुम कृपा करके मुझे इतना दे देना जिससे मैं अपने परिवार को पाल लूँ, मैं खुद भी भूखा न रहूँ और कोई साधु भी मेरे घर से खाली हाथ न जाये।

प्रश्न 2.
कवि के अनुसार किस प्रकार के वृक्ष के नीचे विश्राम करना चाहिए?
उत्तर:
कवि के अनुसार उस वृक्ष के नीचे विश्राम करना चाहिए जिसमें बारह महीने फल लगते हों, जिसमें शीतल छाया हो और घने फल हों तथा जिस पर पक्षी गण क्रीड़ा करते हों।

प्रश्न 3.
साधु से किस प्रकार के प्रश्न नहीं करने चाहिए?
उत्तर:
साधु से उसकी जाति नहीं पूछनी चाहिए, उससे तो केवल ज्ञान की बातें पूछनी चाहिए।

प्रश्न 4.
‘लोक कल्याण कामना’ से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
लोक कल्याण कामना से कवि का आशय है कि हमें संसार में रहकर ऐसे कार्य करने चाहिए जिनसे अधिक-से-अधिक लोगों का कल्याण हो। स्वार्थ के लिए हमें कार्य नहीं करने चाहिए।

प्रश्न 5.
कवि जग की विषम आँधियों के सम्मुख किस प्रकार के स्वभाव की अपेक्षा कर रहा है?
उत्तर:
कवि जग की विषम आँधियों के सम्मुख हिम्मत से डटे रहने के स्वभाव की अपेक्षा कर रहा है।

प्रश्न 6.
कर्मच्युत होने से क्या परिणाम होगा?
उत्तर:
कर्मच्युत होने से यह परिणाम निकलेगा कि तुम धोखे में पड़कर इस अलभ्य (अनमोल) अवसर से हाथ धो बैठोगे।

सामाजिक समरसता दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
दुर्बल को सताने का क्या दुष्परिणाम होता है?
उत्तर:
दुर्बल व्यक्ति को सताने का यह परिणाम होता है कि उसकी मोटी आहों से कोई बच नहीं पायेगा।

प्रश्न 2.
अवगुण का निवास कहाँ है?
उत्तर:
अवगुण का निवास मनुष्यों के हृदय में होता है।

प्रश्न 3.
किन विशेषताओं को खोकर भक्ति की जा सकती है?
उत्तर:
जाति एवं वर्ण जैसी विशेषताओं को खोकर ही भक्ति की जा सकती है।

प्रश्न 4.
मनुष्य किन-किन शक्तियों से सम्पन्न है? संसार में जीने का उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
मनुष्य अमित बुद्धि एवं बल से युक्त है, अतः उसका संसार में जीने का भी निश्चित उद्देश्य है; और वह है जीवन में प्रतिक्षण अपने उद्देश्य को पाने के लिए कर्म में जुटे रहना।

प्रश्न 5.
‘जीवन सन्देश’ कविता का केन्द्रीय भाव लिखिए।
उत्तर:
‘जीवन सन्देश’ कविता में कवि ने स्पष्ट किया है कि मनुष्य एक कर्त्तव्यपरायण व्यक्ति है, किन्तु कभी-कभी वह कर्तव्य से विमुख होकर भी काम करने लगता है और जीवन के उच्च उद्देश्यों से भटक जाता है। इस प्रकार के कार्यों से वह समाज की कोई भलाई नहीं कर सकता। अपने समाज और अपनी जन्म-भूमि के प्रति भी मनुष्य में कर्त्तव्य भावना होनी चाहिए, तभी उसकी जीवन यात्रा सार्थक है।

प्रश्न 6.
संसार मनुष्य के लिए एक परीक्षा स्थल है, ऐसा कवि ने क्यों कहा है ?
उत्तर:
संसार में अनेकानेक विषम परिस्थितियाँ और विपदाएँ आती रहती हैं, इसलिए कवि ने संसार को एक परीक्षा स्थल कहा है। इन विषम परिस्थितियों और आपदाओं से मनुष्य को घबड़ाना नहीं चाहिए बल्कि उनका डटकर सामना करना। चाहिए तथा अपने उद्देश्य को पाने के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहना चाहिए।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) ऊँचै कुल का ………. निंद्या सोई॥
उत्तर:
कबीरदास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म लेने भर से कोई व्यक्ति ऊँचा नहीं हो जाता। यदि उसके कार्य ऊँचे नहीं हैं, तो वह कभी ऊँचा नहीं हो सकता है। ऊँचे अर्थात् श्रेष्ठ कार्य करने वाला व्यक्ति ही.ऊँचा होता है। वे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि यदि सोने के कलश में मदिरा भरी हुई है, तो साधु लोग उस कलश की प्रशंसा न करके निन्दा ही करेंगे।

(ख) जब गुण ………… बदलै जाइ॥
उत्तर:
कबीरदास जी कहते हैं कि जब गुण के ग्राहक मिल जाते हैं तो गुण लाख रुपये में बिकता है और यदि गुण के ग्राहक न मिलें तो वह गुण कौड़ियों में बिक जाता है।

(ग) तुम मनुष्य हो ………….. निज जीवन में?
उत्तर:
कविवर त्रिपाठी जी कहते हैं कि तुम मनुष्य हो और तुम्हारा जन्म इस संसार में अत्यधिक बुद्धि एवं बल से युक्त है। ऐसी दशा में क्या तुमने अपने मन में कभी इस बात पर विचार किया है कि तुम्हारा जीवन क्या उद्देश्य रहित है? अर्थात् नहीं। कवि पुनः कहता है कि हे मनुष्यो! तुम बुरा मत मानना। तुम अपने मन में एक बार सोचो तो कि क्या तुमने अपने जीवन के सभी कर्त्तव्य पूरे कर लिये हैं अर्थात् अभी नहीं किये हैं।

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सामाजिक समरसता काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
करुण रस को उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर:
करुण रस-किसी प्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति की अनिष्ट की आशंका या विनाश से हृदय में उत्पन्न क्षोभ या दुःख को करुण रस कहते हैं। इसका स्थायी भाव शोक’ है।

उदाहरण :
अभी तो मुकुट बँधा था माथ हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खुले भी न थे लाज के बोल, खिले भी चुंबन शून्य कपोल। हाय रुक गया यहीं संसार,बना सिन्दूर अंगार।
बातहत लतिका वह सुकुमार पड़ी है छिन्न धार।
स्पष्टीकरण स्थायी भाव-शोक।
विभाव :
(क) आलम्बन विनष्ट पति।
(ख) आश्रय-पत्नी।
(ग) उद्दीपन-मुकुट का बाँधना, हल्दी के हाथ होना,लाज के बोल न खलना।
अनुभाव :
वातहत लतिका के समान नायिका का बेहाल पड़े रहना। संचारी भाव-जड़ता,स्मृति, दैन्य और विषाद आदि।

प्रश्न 2.
गीतिका छन्द को अन्य उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर:
गीतिका छन्द में 26 मात्रा, 14-12 पर यति तथा प्रत्येक चरण के अन्त में ‘लघु-गुरु’ (15) होता है।

उदाहरण :
हे प्रभो! आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे दुर्गुणों कों दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक, वीर व्रत धारी बनें।।

प्रश्न 3.
हरिगीतिका छन्द के लक्षण देते हुए एक अन्य उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
हरिगीतिका सममात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 16 एवं 12 पर यति के साथ कुल 28 मात्राएँ होती हैं। चरण के अन्त में लघु-गुरु होता है।

उदाहरण :
‘गाते प्रियाओं के सहित रस राग यक्ष जहाँ तहाँ। प्रत्यक्ष दो उत्तर दिशा की दीखती लक्ष्मी यहाँ। कहते हुए यों पार्श्व में सहसा उदासी छा गई। उत्तर दिशा से याद सहसा उत्तरा की आ गई।’

सामाजिक समरसता महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न
सामाजिक समरसता बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोहा किसकी श्वांस से भस्म हो जाता है?
(क) कोयले की
(ख) सोने की
(ग) लकड़ी की
(घ) मरी हुई खाल की।
उत्तर:
(ग) लकड़ी की

प्रश्न 2.
दयामयी माता के तुल्य किसे माना गया है?
(क) माँ
(ख) भारत की धरती को
(ग) भारत
(घ) प्रान्त को।
उत्तर:
(ख) भारत की धरती को

प्रश्न 3.
कवि के अनुसार किस प्रकार के वृक्ष के नीचे विश्राम करना चाहिए?
(क) छायादार
(ख) घना
(ग) फलयुक्त
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 4.
सज्जन व्यक्ति से क्या पूछना चाहिए? (2009)
(क) जाति
(ख) नाम
(ग) ज्ञान
(घ) काम।
उत्तर:
(ग) ज्ञान

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रिक्त स्थानों की पूर्ति

जाति न पूछो साधु की पूछि लीजिए ………..
कबीर ने बाह्य आडम्बरों तथा ………… का व मूर्तिपूजा का विरोध किया।
ऊँचे कुल में जन्म लिया हो पर करनी ऊँची न हो, ऐसा व्यक्ति ……….. स्वर्ण कलश के समान है।
लोक कल्याण की कामना ही सच्ची ……….. है।
उत्तर:

ज्ञान
अन्ध विश्वास
मदिरा से भरे
लोक सेवा।
सत्य/असत्य

कबीर की भाषा को खिचड़ी या सधुक्कड़ी भाषा कहा जाता है।
कबीर ने बाहरी आडम्बरों का समर्थन किया। (2009)
‘सबसे अधिक अवगुण औरों में ही होते हैं’ कबीर का यह कथन है।
रामनरेश त्रिपाठी स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा के प्रतिष्ठित कवि हैं। इन्होंने स्वच्छन्दतावादी परम्परा को बढ़ाया।

उत्तर:

सत्य
असत्य
असत्य
सत्य।
सही जोड़ी मिलाइए

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उत्तर:

  1. → (घ)
  2. → (ग)
  3. → (क)
  4. → (ख)

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

कबीर सच्चे अर्थों में कवि होते हुए भी क्या थे?
साधु से क्या नहीं पूछना चाहिए? (2012)
कवि ने जीवन सन्देश में अपने कर्म में कैसी तत्परता बतायी है?
अटल निश्चय व भय रहित संसार में कौन है?
जीवन संदेश कविता का मूल स्वर क्या है? (2012)
गुण कब लाख रुपये में बिकता है? (2018)

उत्तर:

समाज सुधारक
जाति
तुच्छ पत्र जैसी
ध्रुव जैसा
कर्म में रत रहना
जब गुणों को समझने वाला ग्राहक मिलता है।
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कबीर की साखियाँ भाव सारांश

कबीर ने अपनी साखियों में जीवन से सम्बन्धित अनेक उपयोगी सीखें दी हैं। मानव को भगवान से उतनी ही याचना करनी चाहिए जितनी आवश्यकता हो। दुर्बल को सताना अपने लिए काँटे बोना है। साधु की जाति नहीं पूछनी चाहिए अपितु उसके गुणों पर दृष्टिपात करना चाहिए। भक्ति के मार्ग में काम,क्रोध तथा लोभ बाधक हैं, अत: इनका त्याज्य अनिवार्य है। उच्च कुल में जन्म लेने वाले मानव का आचरण भी पवित्र होना आवश्यक है। फलदायी वृक्ष का आश्रय सुखद होता है। गुणी मानव हीं गुणों की परख कर सकता है। हीरा की परख जौहरी ही जानता है। भगवान गुणों के अक्षय कोष हैं, अवगुण तो हमारे मन-मानस में पल्लवित हैं। कबीर की साखियों में उच्चादर्शों से सम्बन्धित उत्कृष्ट काव्य सृष्टि है।

कबीर की साखियाँ संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

साईं इतना दीजिए, जामैं कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय॥ (1)

शब्दार्थ :
साईं = स्वामी, भगवान। कुटुम = कुटुम्ब। समाय = भरण-पोषण हो जाए। साधु = अतिथि।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचित ‘कबीर की साखियाँ’ शीर्षक से ली गयी है।

प्रसंग :
इसमें कवि ने भगवान से प्रार्थना की है कि हे भगवान! हमें इतना दे दो कि हमारा भली-भाँति गुजारा हो जाए।

व्याख्या :
कबीरदास जी कहते हैं कि हे भगवान! आप हमें इतना भर दे दें जिसमें हमारे कुटुम्ब का भली-भाँति भरण-पोषण हो जाए। मैं भी भूखा न रहूँ और मेरे घर पर जो भी साधु-संन्यासी आएँ, वे भी खाली हाथ न लौटें।

विशेष :

कवि ने मात्र कुटुम्ब भरण तक की सुविधा ही भगवान से माँगी है।
दोहा छन्द।
दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मरी चाम की स्वांस से, लौह भसम है जाय॥ (2)

शब्दार्थ :
दुर्बल = कमजोर व्यक्ति। चाम = चमड़े।

सदर्भ :
पूर्ववत।

प्रसंग :
कबीर ने दुर्बल व्यक्ति को न सताने का उपदेश दिया है।

व्याख्या :
कबीरदास जी कहते हैं कि दुर्बल व्यक्तियों को मत सताओ। इनकी आहे बड़ी मोटी अर्थात् भारी होती हैं। एक उदाहरण देकर वे कहते हैं कि जब मरे हुए चमड़े से बनाई गई मसक की श्वांस से लोहा भी भस्म हो जाता है तो जीवित व्यक्ति की आहों से कितना अहित हो जायेगा, इसे अच्छी तरह सोच लो और दुर्बलों को मत सताओ।

विशेष :

कवि ने दुर्बलों को न सताने का उपदेश दिया।
दोहा छन्द।
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥ (3)

शब्दार्थ :
मोल = मोल-भाव।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कबीरदास जी साधु संन्यासी की जाति न पूछने और ज्ञान जानने की बात कहते हैं।

व्याख्या :
कबीरदास जी संसारी मनुष्यों से कहते हैं कि हे मनुष्यो! तुम कभी भी किसी साधु-संन्यासी की जाति के बारे में मत पूछो। यदि तुम्हें पूछना ही है तो उससे उसके ज्ञान के बारे में जानकारी लो। एक उदाहरण देकर कबीर बताते हैं कि मोल-भाव तो तलवार का किया जाता है, म्यान को कौन पूछता है।

विशेष :

गुणों को जानना चाहिए, जाति को नहीं।
दोहा छन्द।
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जाति हमारी आतमा, प्रान हमारा नाम।
अलख हमारा इष्ट है, गगन हमारा ग्राम॥ (4)

शब्दार्थ :
अलख = अदृश्य। इष्ट = भगवान। गगन = आकाश।

सन्दर्भ ;
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस साखी में कबीरदास जी अपना परिचय देते हुए कह रहे हैं।

व्याख्या :
कबीरदास जी कहते हैं कि हमारी आत्मा ही हमारी जाति है, हमारा नाम ही हमारे प्राण हैं। अदृश्य अर्थात् न दिखाई देने वाला निर्गुण निराकार ईश्वर ही हमारा इष्ट है और आकाश हमारा ग्राम है।
विशेष :

कवि ने अपनी व्यापकता का परिचय दिया है।
दोहा छन्द है।
कामी क्रोधी लालची, इन पै भक्ति न होय।
भक्ति करै कोई शूरमाँ, जाति वरण कुल खोय॥ (5)

शब्दार्थ :
कामी = काम वासना में रत रहने वाला। जाति = जाति, कुल। वर्ण = वर्ण व्यवस्था। खोय = खोकर।

सन्दर्भ-:
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस छन्द में कबीरदास जी ने बताया है कि कामी-क्रोधी व्यक्तियों से ईश्वर की भक्ति नहीं हो सकती है।

व्याख्या :
कबीरदास जी कहते हैं कि कामी, क्रोधी और लालची स्वभाव के व्यक्तियों से भगवान की भक्ति नहीं हो सकती है जो व्यक्ति जाति एवं वर्ण भूल जाता है, वही शूरमाँ होता है और वही भगवान की भक्ति कर सकता है।

विशेष :

विषय-वासनाओं से मुक्त होकर ही भक्ति की जा सकती है।
दोहा छन्द।
ऊँचै कुल का जनमियाँ, जे करणी ऊँच न होइ।।
सोवन कलस सुरै भऱ्या, साधू निंद्या सोई॥ (6)

शब्दार्थ :
जनमियाँ = जन्म लेने वाला। करणी = कार्य। सोवन = सोने के। सुरै = मदिरा। भऱ्या = भरी हुई है। निंद्या = निंदा करता है। सोइ = उसकी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कबीरदास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म लेने से कोई व्यक्ति ऊँचा नहीं होता है।

व्याख्या :
कबीरदास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म लेने भर से कोई व्यक्ति ऊँचा नहीं हो जाता। यदि उसके कार्य ऊँचे नहीं हैं, तो वह कभी ऊँचा नहीं हो सकता है। ऊँचे अर्थात् श्रेष्ठ कार्य करने वाला व्यक्ति ही.ऊँचा होता है। वे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि यदि सोने के कलश में मदिरा भरी हुई है, तो साधु लोग उस कलश की प्रशंसा न करके निन्दा ही करेंगे।

विशेष :

व्यक्ति अच्छे कामों से ऊँचा होता है, ऊँचे कुल में जन्म लेने से नहीं।
दोहा छन्द।
तरवर तास बिलंबिए, बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहर फल, पंधी केलि करत॥ (7)

शब्दार्थ :
तरवर = श्रेष्ठ वृक्ष। तास = उसी का। बिलंबिए = सहारा लीजिए। फलंत = फलता है। गहर = घने। पंषी = पक्षी। केलि = क्रीड़ाएँ।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कबीरदास जी ने ऐसे व्यक्ति का आश्रय लेने का उपदेश दिया है, जिससे हर व्यक्ति सुखी हो।

व्याख्या :
कबीरदास जी तरुवर के माध्यम से उस श्रेष्ठ व्यक्ति का आश्रयं ग्रहण करने का उपदेश देते हैं कि उसी श्रेष्ठ वृक्ष का आश्रय लेना चाहिए जो बारह महीने फल देता हो, जिसकी छाया शीतल हो, जिसमें घने फल लगते हों और जिस पर बैठकर पक्षीगण अपनी क्रीड़ाएँ करते हों।

विशेष :

सज्जन लोगों का आश्रय लेने की बात कही है।
दोहा छन्द।
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जब गुण कँगाहक मिलै, तब गुण लाख बिकाइ।
जब गुण कौं गाहक नहीं, कौड़ी बदले जाइ॥ (8)

शब्दार्थ :
गाहक = ग्रहण करने वाला, जानकार।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि कहता है कि गुणों का महत्त्व तभी तक है जब तक उसके ग्राहक मिलते हैं।

व्याख्या :
कबीरदास जी कहते हैं कि जब गुण के ग्राहक मिल जाते हैं तो गुण लाख रुपये में बिकता है और यदि गुण के ग्राहक न मिलें तो वह गुण कौड़ियों में बिक जाता है।

विशेष :

गुण के ग्राहक का महत्व है।
दोहा छन्द।
सरपहि दूध पिलाइये, दूधैं विष है जाइ।
ऐसा कोई नां मिलै, सौं सरपैं विष खाइ॥ (9)

शब्दार्थ :
सरपहि = साँप को। लै जाइ = हो जायेगा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि कहता है कि सर्प को दूध पिलाने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि वह दूध भी विष बन जायेगा।

व्याख्या :
कबीरदास जी कहते हैं कि सर्प को दूध पिलाने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि सर्प के गले में जाकर दूध भी विष बन जायेगा। कबीर कहते हैं कि मुझे आज तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला, जो सर्प के विष को खा जाये।

विशेष :

साँप से आशय दुष्ट लोग हैं।
दोहा छन्द।
करता करे बहुत गुण, आगुण कोई नांहि।
जे दिल खोजौं आपणौं, तो सब औगुण मुझ माहि॥ (10)

शब्दार्थ :
करता = कर्ता, सृष्टि का निर्माणकर्ता। केरे = तेरे। आगुण = अवगुण। आपणौ = अपना। मांहि = अन्दर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कर्ता (भगवान) में गुण ही गुण होते हैं, अवगुण नहीं।

व्याख्या :
कबीरदास जी कहते हैं कि कर्ता अर्थात् भगवान में केवल गुण ही गुण हैं, उनमें कोई भी अवगुण नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं कि जब मैंने अपना दिल खोजा तो मैंने पाया कि सभी अवगुण मेरे अन्दर हैं।

विशेष :

ईश्वर (कर्ता) की महत्ता का वर्णन तथा अपने अवगुणों का वर्णन कवि ने किया है।
दोहा छन्द।
जीवन संदेश भाव सारांश

प्रस्तुत कविता ‘जीवन संदेश’ में श्री रामनरेश त्रिपाठी ने मानव को कर्म में रत रहने का संदेश दिया है। संसार में जड़,चेतन सभी पदार्थ अपने-अपने कर्म में लगे रहते हैं। सूर्य संसार में नवीन शोभा विकीर्ण करता है। चन्द्रमा रात्रि में अमृत की वर्षा करता है।

तुच्छ तिनका भी कर्म में रत रहकर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है। कवि मनुष्य को सचेत करता हुआ कहता है कि तुम मनुष्य हो, तुम्हारे पास बुद्धि,बल है। तुम्हें भी सोद्देश्य जीवन बिताना चाहिए।

मातृभूमि के प्रति भी अपने कर्तव्य का दृढ़ता से पालन करना चाहिए। जीवन में लोक कल्याण व लोक सेवा आवश्यक है। संसार में मानव को विषम परिस्थितियों का दृढ़ता से सामना करना चाहए, चाहे कितनी ही विषम आँधियाँ आयें। व्यक्ति को चन्द्रमा सा शान्त व ध्रुव तारे की भाँति अचल भावना रखनी चाहिए।

यह संसार ईश्वर के द्वारा निर्मित है। उसी के द्वारा समस्त सृष्टि का संचालन होता है। अतः कवि का कथन है कि जिस भूमि पर तुमने जन्म लिया है उसके प्रति अपने कर्तव्य का पालन अन्तिम श्वांस तक करना चाहिए। यही मानव का परम धर्म है।

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जीवन संदेश संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) जग में सचर अचर जितने हैं सारे कर्म निरत हैं।
धुन है एक न एक सभी को सबके निश्चित व्रत हैं।
जीवनभर आतप सह वसुधा पर छाया करता है।
तुच्छ पत्र की भी स्वकर्म में कैसी तत्परता है।

शब्दार्थ :
सचर = चलने-फिरने वाले प्राणी। अचर = न चलने-फिरने वाली जड़ वस्तुएँ। कर्म निरत हैं अपने-अपने आप में लगे हुए हैं। व्रत = उद्देश्य, निश्चय। आतप = धूप। वसुधा = पृथ्वी। पत्र = पत्ता। स्वकर्म= अपने काम में। तत्परता = लगन।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत छन्द ‘जीवन सन्देश’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता श्री रामनरेश त्रिपाठी हैं।

प्रसंग :
कवि ने यहाँ बताने का प्रयास किया है कि संसार में जड़ एवं चेतन सभी अपने-अपने काम में लगे हुए हैं।

व्याख्या :
श्री रामनरेश त्रिपाठी कहते हैं कि इस संसार। में जितने भी जड़ और चेतन हैं, वे सभी अपने-अपने कामों में लगे हुए हैं। सभी को कोई-न-कोई धुन होती है और उनका कोई-न-कोई व्रत (उद्देश्य) होता है। कवि पत्ते का उदाहरण देते हुए कहता है कि वह तुच्छ पत्ता जीवन भर धूप को सहता हुआ पृथ्वी पर छाया करता रहता है। देखिए उस तुच्छ पत्ते की भी अपने काम में कितनी तत्परता है।

विशेष :

कवि का मानना है कि जड़ और चेतन सभी अपने कामों में लगे हुए हैं।
अनुप्रास की छटा।
(2) रवि जग में शोभा सरसाता सोम सुधा बरसाता।
सब हैं लगे कर्म में कोई निष्क्रिय दृष्टि न आता॥
हैं उद्देश्य नितान्त तुच्छ तृण के भी लघु जीवन का।
उसी पूर्ति में वह करता है अन्त कर्ममय तन का॥

शब्दार्थ :
रवि = सूर्य। सोम = चन्द्रमा। सुधा = अमृत। निष्क्रिय = बिना काम के। नितान्त = पूरी तरह से। तुच्छ = छोटे। तृण = घास। कर्ममय = काम में लगते हुए।

सन्दर्भ-:
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि सूर्य, चन्द्रमा आदि सभी अपने-अपने कर्म में लगे हुए हैं।

व्याख्या :
कविवर त्रिपाठी जी कहते हैं कि सूर्य संसार में शोभा का विस्तार करता है तो चन्द्रमा पृथ्वी पर अमृत बरसाता है। इस संसार में सभी जड़, चेतन अपने-अपने कामों में लगे हुए हैं। कोई भी व्यक्ति हमें बिना काम के नजर नहीं आता है। तुच्छ तिनके के लघु जीवन का भी उद्देश्य है और उसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु वह अपने शरीर का अन्त कर देता है।

विशेष :

सभी संसार में कार्यरत हैं, बिना काम के कोई नहीं है।
अनुप्रास की छटा।
(3) तुम मनुष्य हो, अमित बुद्धिबल-विलसित जन्म तुम्हारा।
क्या उद्देश्य रहित है जग में तुमने कभी विचारा?
बुरा न मानो, एक बार सोचो तुम अपने मन में।
क्या कर्त्तव्य समाप्त कर लिए तुमने निज जीवन में॥

शब्दार्थ :
अमित = अत्यधिक। बुद्धि-बल विलसित = बुद्धि और बल से सुशोभित।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि मनुष्यों को सचेत करते हुए कहता है कि तुम्हें भी अपने जीवन को काम करते हुए सार्थक बनाना है।

व्याख्या :
कविवर त्रिपाठी जी कहते हैं कि तुम मनुष्य हो और तुम्हारा जन्म इस संसार में अत्यधिक बुद्धि एवं बल से युक्त है। ऐसी दशा में क्या तुमने अपने मन में कभी इस बात पर विचार किया है कि तुम्हारा जीवन क्या उद्देश्य रहित है? अर्थात् नहीं।

कवि पुनः कहता है कि हे मनुष्यो ! तुम बुरा मत मानना। तुम अपने मन में एक बार सोचो तो कि क्या तुमने अपने जीवन के सभी कर्त्तव्य पूरे कर लिये हैं अर्थात् अभी नहीं किये हैं।

विशेष :

कवि मनुष्य का कर्म क्षेत्र में निरन्तर लगे रहने की प्रेरणा देता है।
अनुप्रास की छटा।
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(4) वह सनेह की मूर्ति दयामयि माता-तुल्य मही है।
उसके प्रति कर्त्तव्य तुम्हारा क्या कुछ शेष नहीं है।
हाथ पकड़कर प्रथम जिन्होंने चलना तुम्हें सिखाया।
भाषा सिखा हृदय का अद्भुत रूप स्वरूप दिखाया।

शब्दार्थ :
सनेह = स्नेह, प्रेम। दयामयि = दया करने वाली। मही = पृथ्वी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि कहता है कि तुमने जन्म तो ले लिया पर जन्म देने वालों के प्रति तुम्हारे जो कर्त्तव्य हैं, उन्हें पूरा करो।

व्याख्या :
कविवर त्रिपाठी कहते हैं कि वह प्रेम की मूर्ति। और दयामयी पृथ्वी माता के समान है। क्या उसके प्रति तुम्हारा। कोई कर्त्तव्य नहीं है? अर्थात् निश्चय ही उसके प्रति हमारा कर्तव्य है? हाथ पकड़कर जिन्होंने सर्वप्रथम तुम्हें पृथ्वी पर चलना सिखाया है, बाद में भाषा का ज्ञान देकर हृदय के अद्भुत रूप। एवं स्वरूप को दिखाया है; क्या उनके प्रति तुम्हारा कर्त्तव्य नहीं? हाँ अवश्य है।

विशेष :

कवि का सन्देश है कि जिन्होंने हमारे साथ कुछ भी उपकार किया है, उनके प्रति हमें कर्त्तव्य पूरा करना चाहिए।
अनुप्रास की छटा।
(5) जिनकी कठिन कमाई का फल खाकर बड़े हुए हो।
दीर्घ देह की बाधाओं में निर्भय खड़े हुए हो॥
जिनके पैदा किए, बुने वस्त्रों से देह ढके हो।
आतप-वर्षा-शीत-काल में पीडित हो न सके हो॥

शब्दार्थ :
बाधाओं = रुकावटों। निर्भय = निडर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि कहता है कि पृथ्वी ने तुम्हें जो विभिन्न उपहार। प्रदान किये हैं उनके प्रति तुम्हें पूर्ण रूप से समर्पित होना चाहिए।

व्याख्या :
कविवर त्रिपाठी कहते हैं कि जिन माता-पिता की कमाई खाकर तुम बड़े हुए हो और अनेकानेक शारीरिक कष्टों से तुम्हें उबार कर जिन्होंने निर्भय बनाकर तुम्हें खड़ा कर दिया है। जिनके पैदा किए हुए तथा बुने हुए वस्त्रों से तुम अपना शरीर ढके हुए हो तथा जिनकी कृपा से धूप, वर्षा, शीत आदि की मुसीबतों से बचे रहे हो, क्या उनके प्रति तुम्हारा कोई कर्त्तव्य नहीं है? भाव यह है कि उनके प्रति तुम्हारा पूर्ण समर्पण होना चाहिए।

विशेष :

कवि ने मनुष्यों को अपने कर्तव्य के प्रति सचेत करना चाहा है।
अनुप्रास की छटा।
(6) क्या उनका उपकार-भार तुम पर लवलेश नहीं है।
उनके प्रति कर्तव्य तुम्हारा क्या कुछ शेष नहीं है।
सतत् ज्वलित दुःख दावानल में जग केदारुण रन में।
छोड़ उन्हें कायर बनकर तुम भाग बसे निर्जन में।

शब्दार्थ :
उपकार = कृपा। लवलेश = जरा भी। सतत् = निरन्तर। ज्वलित = जलते हुए। दावानल = जंगल की आग। दारुण = भयंकर। निर्जन = एकान्त।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि उन लोगों को फटकार लगाता है, जो संसारिक मुसीबतों से घबड़ाकर जंगल में चले जाते हैं।

व्याख्या :
कविवर त्रिपाठी कहते हैं कि क्या जिन लोगों ने तुम्हें जन्म दिया और पाल-पोस कर बड़ा किया, उनके प्रति तुम्हारा कोई कर्त्तव्य नहीं है। निरन्तर जलते हुए दुःख के दावानल में तथा संसार के भयानक रण-क्षेत्र में उन सबको छोड़कर और कायर बनकर तुम निर्जन स्थान में भाग कर बस गए हो, क्या यह तुम्हें उचित लगता है? अर्थात् बिल्कुल नहीं।

विशेष :

कवि ने कृतघ्न लोगों को फटकारा है।
अनुप्रास की छटा।
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(7) यही लोक-कल्याण-कामना यही लोक-सेवा है।
यही अमर करने वाले यश-सुरतरु की मेवा है।
जाओ पुत्र! जगत् में जाओ, व्यर्थ न समय गँवाओ।
सदालोक-कल्याण-निरतहोजीवनसफलबनाओ।

शब्दार्थ :
यश-सुरतरु = शयरूपी कल्प वृक्ष। निरत = लगे रहो।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि मनुष्यों को व्यर्थ में ही समय न गँवाकर लोक कल्याण में लग जाने का उपदेश देता है।

व्याख्या :
श्री त्रिपाठी जी कहते हैं कि लोक कल्याण की भावना से जो व्यक्ति लोक सेवा करता है, इससे भी अमर होता है तथा इसी से उसे यशरूपी कल्पतरु से मिलने वाली मेवा प्राप्त होती है। इसलिए हे मानवी पुत्रो! तुम व्यर्थ में अपना समय मत गँवाओं और सदैव लोक कल्याण में रत रहकर अपने जीवन को सफल बनाओ।

विशेष :

कवि ने मनुष्यों को लोक कल्याणकारी कार्यों में लगे रहने का महत्व बताया है।
अनुप्रास की छटा।
(8) जनता के विश्वास कर्म मन ध्यान श्रवण भाषण में।
वास करो, आदर्श बनो, विजयी हो जीवन-रण में।
अति अशांत दुखपूर्ण विश्रृंखल क्रान्ति उपासक जग में।
रखना अपनी आत्म शक्ति पर दृढ़निश्चय प्रति पग में।

शब्दार्थ :
वास करो = निवास करो। जीवन-रण = जीवन रूपी रण में। विशृंखल = बिखरे हुए।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का संदेश है कि अपने कर्मों, मन में, ध्यान में, श्रवण में और भाषण में सदैव ऐसी बातें रखना जिससे तुम। जनता के हृदय में वास कर सको, उनके आदर्श बन सको। इस प्रकार के क्रिया-कलाप करते हुए तुम जीवन रूपी रण में सदैव विजयी होगे। आज संसार का वातावरण अति अशान्त, दुःखपूर्ण बिखरा हुआ, क्रान्ति की उपासना करने वाला बना हुआ है। इन परिस्थितियों में भी तुम अपनी आत्म शक्ति पर प्रत्येक पग में दृढ़ निश्चय रखना अर्थात् कभी विचलित मत। हो जाना।

विशेष :

कवि ने जनता के कल्याण में रत रहने का उपदेश दिया है।
रूपक एवं अनुप्रास की छटा।
(9) जग की विषम आँधियों के झोंके सम्मुख हो सहना।
स्थिर उद्देश्य-समान और विश्वास सदृश दृढ़ रहना।
जाग्रत नित रहना उदारता-तुल्य असीम हृदय में।
अन्धकार में शान्त, चन्द्रसा, ध्रुव-सा निश्चय भय में।

शब्दार्थ :
विषय आँधियों = विपरीत परिस्थितियों। – सम्मुख = सामने से। जाग्रत = जागना। तुल्य = समान। असीम = सीमा रहित।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि उपदेश देता है कि चाहे संसार में कैसी भी विषम परिस्थितियाँ क्यों न आ जाएँ, तुम ध्रुव तारे के समान डटे रहना।

व्याख्या :
कविवर त्रिपाठी कहते हैं कि संसार में आने वाली विषम परिस्थितियों के झोंकों से तुम विचलित मत होना, अपितु उनका डटकर सामना करना। समान उद्देश्य में स्थिर तथा विश्वास के समान दृढ़ बने रहना। उदारता करते समय नित्य जागते रहना और अपने असीम हृदय में यह गुण धरते रहना। अन्धकार अर्थात् निराशा के समय चन्द्रमा के समान शान्त रहना और भय तथा विपत्ति में ध्रुव के समान निश्चल (अडिग) बने रहना।

विशेष :

कवि ने किसी भी स्थिति में विचलित न होने। का सन्देश दिया है।
उपमा और अनुप्रास की छटा।
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(10) जगन्नियंता की इच्छा से यह संसार बना है।
उसकी ही क्रीड़ा का रूपक यह समस्त रचना है।
है यह कर्म-भूमि जीवों की यहाँ कर्मच्युत होना।
धोखे में पड़ना अलभ्य अवसर से है कर धोना॥
पैदा कर जिस देश जाति ने तुमको पाला पोसा।
किए हुए वह निजहित का तुमसे बड़ा भरोसा।
उससे होना उऋण प्रथम है सत्कर्त्तव्य तुम्हारा।
फिर दे सकते हो वसुधा को शेष स्वजीवन सारा॥

शब्दार्थ :
जगन्नियंता = ईश्वर। कर्मच्युत = काम से भागना। अलभ्य = जो सरलता से प्राप्त न हो सके। उऋण = ऋण मुक्त।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने सन्देश दिया है कि जिस देश जाति ने तुमको पैदा कर तुम्हारा भरण-पोषण किया है, उसके प्रति नि:स्वार्थ भाव से सेवा करके तुम उऋण हो सकते हो।

व्याख्या :
कविवर त्रिपाठी जी कहते हैं कि परम सत्ता की इच्छा से ही इस संसार का निर्माण हुआ है तथा उसकी ही क्रीड़ा का रूपक यह संसार है। यह देश जीवों की कर्मभूमि है अतः यहाँ कभी भी कर्म से पीछे मत हटना। यदि किसी धोखे में पड़कर तुमने कर्त्तव्य को त्याग दिया, तो तुम्हारे हाथ से अलभ्य (अनमोल) अवसर निकल जायेगा। जिस देश और जाति ने तुम्हें पैदा कर तुम्हें पाला-पोसा है, वह अपने हित का तुम परं बहुत बड़ा भरोसा किए हुए है। तुम्हारा यह सत्कर्म तथा प्रथम कर्त्तव्य है कि तुम देश और जाति के ऋण से ऋण-मुक्त हो जाओ। इस प्रकार तुम अपना शेष (बचा हुआ) जीवन अपनी पृथ्वी को दे सकते हो।

विशेष :

कवि ने कर्म क्षेत्र से भागने वालों की निन्दा सकते हो। की है।
कवि का उपदेश है कि जिस देश और जाति में तुमने जन्म पाया है, उनके प्रति भी तुम्हारे कुछ कर्त्तव्य हैं।
अनुप्रास की छटा।


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