MP Board Class 11th Special Hindi Sahayak Vachan Solutions Chapter 3 बन्दी पिता का पत्र

MP Board Class 11th Hindi Book Solutions हिंदी मकरंद, स्वाति Chapter-3 बन्दी पिता का पत्र NCERT पर आधारित Text Book Questions and Answers Notes, pdf, Summary, व्याख्या, वर्णन में बहुत सरल भाषा का प्रयोग किया गया है.

MP Board Class 11th Special Hindi Sahayak Vachan Solutions Chapter 3 बन्दी पिता का पत्र

प्रश्न 1.
‘बन्दी पिता का पत्र’ किसने किसे संबोधित कर लिखा है?
उत्तर:
‘बन्दी पिता का पत्र’ पंडित कमलापति त्रिपाठी ने अपने प्रिय पुत्र लाल जी को सम्बोधित करते हुए लिखा है।

प्रश्न 2.
पत्र में कैदियों के जीवन के विषय में किन-किन बातों का उल्लेख किया है? (2017)
उत्तर:
पत्र में कैदियों के जीवन के विषय में जिन बातों का उल्लेख है, वे इस प्रकार हैं-इन कैदियों के जीवन में आनन्द, सुख और सन्तोष के लिए स्थान नहीं होता है। इनके साथ पशओं जैसा व्यवहार किया जाता है, उन्हें पीसा जाता है। इन कैदियों को समाज से उपेक्षित समझा जाता है। संसार में कहीं पर भी सम्मानपूर्वक इनको खड़े होने का कोई स्थान नहीं है। इनका भविष्य भी अन्धकारपूर्ण ही होता है। इन कैदियों के जीवन के अनेक वर्ष यहाँ ही समाधिस हो गए।

इन जेल के कैदियों के जीवन में कहाँ है बसन्त? और कहाँ है सावन की मेघगर्जन? यहाँ ये ऐसे प्राणी हैं जिनकी सारी जवानी इसी में कट गई। बुढ़ापा यहाँ आ गया और अब मौत भी इन्हें यहाँ ही आकर समाधिस्थ करेगी। वे, फिर किसी भी बन्धन से मुक्त हो जाएँगे।

जेल के कैदियों में ऐसे व्यक्तियों की भी संख्या इतनी अधिक है जिन्हें यह भी पता नहीं कि उनके घर की क्या दशा है? अपने जिन बच्चों को छोड़ आए थे, वे अब कैसे हैं? उनके घर वाले भी अब उन्हें भूल चुके हैं। यदि आज जेल से छूट कर जाएँ, और अपने सौभाग्य से अपने बेटों से मिलें, और अपनी बीबी के सामने खड़े हों तो शायद न बेटा बाप को पहचानेगा और न ही बीबी अपने मियाँ को।

क्या कभी कोई ऐसी कल्पना भी कर सकता है कि इनके हृदय में भी रस का संचार होगा, सम्भव है? क्या होली, क्या दीवाली-किसी में यह सामर्थ्य कहाँ हो सकती है कि इनके हृदय में टूटे हुए तारों को पुनः जोड़ दिया जाए और फिर उनमें से झंकृति निकल सके।

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प्रश्न 3.
जीवन के सुख-दुःख से सम्बन्धित विचारों को लेखक ने किस प्रकार व्यक्त किया है?
उत्तर:
प्रकृति एक नटी है। लीलामयी प्रकृति मानव में वह क्षमता उत्पन्न करती है जिससे सुख-दुःख की परिस्थिति में एक सामंजस्य स्थापित हो उठता है। मनुष्य की इस क्षमता को अद्भुत ही कहा जायेगा। परिस्थितिवश स्वयं को उसके अनुकूल किस सरलता से ढाल लेता है। मनुष्य के हृदय में कला, संतुलन और धैर्य का कितना माद्दा है कि प्रत्येक परिस्थिति को अपने अनुसार ढालने में कोई कसर नहीं छोड़ता। अपनी इसी क्षमता के बलबूते पर मनुष्य जीवन धारण करने में समर्थ है।

मेरा स्वयं का अनुभव है कि यह जगत अनन्त वेदना और दुःखों से ही भरा हुआ है। यह जीवन प्रबल गति से बहते महान् काल रूपी नदी के प्रवाह पर उठे हुए बुलबुले के समान क्षणिक है। यह जीवन अस्थायी अस्तित्व लिए हुए है। इस जीवन के कितने क्षण ऐसे हैं जो सुख और शान्ति से बीते हैं। इस जीवन में सुख, आनन्द और तृप्ति नाम का पदार्थ ढूँढ़े नहीं मिल सकता।

यह जीवन बित्तेभर का है, उसके भी बड़े हिस्से में वेदना, पीड़ा और अवसाद भरा हुआ है। यदि सुख के कुछ क्षण यहाँ आ भी जाते हैं, तो वे बिजली की भाँति क्षण भर कौंध जाते हैं और मानव जीवन जो प्रायः अंधकार से भरा हुआ है, कभी-कभी आलोकित हो उठता है। सुख का प्रकाश शीघ्र ही लुप्त हो जाता है। यह सुख नश्वर है, क्षणिक है। परन्तु इस सुख की क्षणिकाओं में सत्य समाया रहता है। यह सत्य अमिट स्मृतियाँ छोड़ चला जाता है। इसी न मिटने वाली स्मृति को जीवन की शक्ति का स्रोत कहते हैं; यही स्मृति निराशा में आशा का संचार करती है, अंधकार में प्रकाश विकीर्ण करती है। मृत्यु और विनाश में जीवन का सृजन का आधार बनकर पुष्ट होती है।

संसारी जीव दु:खों से प्रभावित है। समाज में कौन ऐसा है जो तप्त हो, और अभावों से ग्रस्त न हो। फिर भी दुःखमय, क्षणिक जीवन के प्रति मनुष्य का इतना मोह क्यों? सुख के कणों को बटोरने के प्रयास में जीवन कितने दुःख, वेदना और यातना सहन करता है। कितने अचम्भे की बात है यह?

प्रश्न 4.
पत्र-लेखक ने गाँधी जी के सत्याग्रह के विषय में क्या लिखा है?
उत्तर:
ब्रिटेन अपनी साम्राज्यवादी नीतियों से लोगों के हृदय में अपने प्रति घृणा की आग सुलगा रहा था। यह अवस्था असहनीय हो चुकी थी जिससे लोगों में झुंझलाहट पैदा हो रही थी। इस महान् देश के करोड़ों लोग नपुंसकतापूर्ण ग्लज्जा का उद्रेक कर रहे थे। उस समय हम सोच रहे थे कि गाँधी जी विकट संकट में फंस गए हैं। गाँधी जी उन लोगों में से थे जो अपनी प्रतिज्ञा से एक कदम भी पीछे हटने वाले नहीं थे। शरीर को चाहे दो भागों में विभक्त क्यों न कर दिया जाए? गाँधी जी के शरीर में विदेहत्व का आदर्श सजीव रूप में मूर्तिमान हो चुका था। आदर्श और सत्य के लिए उस व्यक्ति की दृष्टि में न जीवन का मूल्य है और न जगत का।

परन्तु दूसरी ओर स्वार्थ में अंधे हुए कठोर हृदय साम्राज्यवादियों की सत्ता देखी। जिनमें नर रक्तपान करते-करते मनुष्यता नाम के किसी पदार्थ की छाया भी नहीं रह गई है। भय होता, भय नहीं विश्वास था कि यदि कहीं, वह अशिव मुहूर्त आ ही गया जब गाँधी जी की भौतिक देह इस तप के बोझ को सहन करने में असमर्थ होती दिखाई देगी, तो उस समय भी वे मानवता की इस विभूति और पृथ्वी के इस अमूल्य रत्न को नष्ट कर देने में आगा-पीछा न करेंगे। आखिर वे तो मनुष्य ही थे जिन्होंने ईसा के तपःपूत शरीर में लोहे की कील ठोंककर प्रसन्नता और सन्तोष प्राप्त किया था। यदि इतिहास उसी की पुनरावृत्ति करे तो उसे कौन रोक सकेगा।

अब हम यह अनुभव कर रहे हैं कि आज गाँधी नहीं मर रहा है। बल्कि उसके साथ वह आदर्श और वह सत्य भी मर रहा है जिसका प्रतिनिधित्व वह स्वयं कर रहा है और जिसका दिव्य संदेश लेकर यह देवदूत अवनि पर अवतीर्ण हुआ है। अब प्रश्न यह भी उठता है कि क्या मानव के चरम कल्याण के लिए और उसके लिए चेष्टा करना ही कोई जघन्य अपराध है जिसके कारण इतना भयानक दंड मिल रहा है।

यदि मानव समाज को संहार से, विनाश से और पाप से बचाना है, तो उसकी समस्त व्यवस्था को अहिंसा के आधार पर स्थापित करने का आयोजन करना ही होगा। लोग कह देते हैं कि अहिंसा मानव-प्रकृति के प्रतिकूल है और कभी हिंसा का उन्मूलन संभव नहीं है। वे इतिहास को साक्षी रूप में उद्धृत करते हैं। लेकिन लेखक के अनुसार लोग उसी इतिहास को गलत ढंग से देखते हैं। वे यह नहीं देखते कि विकास-पथ का पथिक मानव सदा प्रवृत्तियों से युद्ध करता। उनका संयम और नियंत्रण करता रहता तो आगे बढ़ता चला गया होता। उसकी यही साधना संस्कृतियों को जन्म देती रही है।

प्रश्न 5.
कैदियों ने होली के उत्सव को किस प्रकार मनाया था?
उत्तर:
आज जेल में कैदियों द्वारा होली का उत्सव मनाया जा रहा है। मैंने अपने कानों से अभी-अभी मंद-मंद किन्तु उनके उल्लास से परिपूर्ण स्वर लहरी को सुना है। यह स्वर लहरी मेरे पास वाली बैरक से सुनाई पड़ रही है। परन्तु इन बेचारे कैदियों के जीवन में आनन्द कहाँ? सुख और सन्तोष के क्षण कहाँ? इन्हें तो समाज से उपेक्षित रखा गया है। ये समाज में सम्मान से खड़े भी नहीं रह सकते। इनके जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा कैद में ही समाधिस्थ हो गया है। फिर भी अपने हृदय की भावनाओं को अपनी मस्त स्वर लहरियों में व्यक्त करते हुए इन्हें देख रहा हूँ।

इन्होंने ढपली बनाई है। धुंघरू बनाए हैं। फटे-पुराने चिथड़ों को एकत्रकर रंगा है। अपनी-अपनी बैरकों से बाहर निकल आए हैं और वे स्वाँग रच रहे हैं। फगुआ गा रहे हैं। कोई-कोई तो धुंधरू पहनकर नाच रहा है। इन अभागे कैदियों का उल्लास और उन्माद दर्शनीय है।

स्वतंत्र वायु और निर्मुक्त अनंत आकाश से भी वंचित होकर वे जीवन को कुछ क्षण के लिए मोहक और आकर्षक बनाने में सफल हुए हैं। आज होली न आई होती, तो आज इन्हें इतना भी नसीब न हुआ होता।

प्रश्न 6.
ब्रिटेन की सरकार की मनमानी से लेखक को क्यों क्षोभ हुआ?
उत्तर:
ब्रिटेन की सरकार साम्राज्यवादी है। वह सरकार निष्ठुरता की पराकाष्ठा से ऊपर तक जा चुकी है। उसकी निष्ठुरता के विरुद्ध लोगों के हृदयों में विरोध की आग फूट पड़ने लगी है। उसने जो अवस्था उत्पन्न की है, वह असह्य है, जिससे ब्रितानी शासक वर्ग किसी भी भारतीय की झंझलाहट के पात्र हो सकते हैं। ब्रिटिश सरकार की ज्यादतियों को भारत जैसे महान् देश के लोग सहन कैसे कर रहे हैं? शायद उनमें नपुंसकता का संचार हो गया है। इससे तो लज्जा का उद्रेक हुआ है।

अब बात आती है, गाँधी जी द्वारा आमरण उपवास की। हम लोग सोचते हैं कि गाँधी जी किसी विकट संकट में पड़ गए हैं। गाँधी जी उन लोगों में से एक हैं जो अपनी प्रतिज्ञा से डिगना नहीं जानते; चाहे उनके शरीर के कितने ही टुकड़े क्यों न हो जायें? वस्तुतः उनमें विदेहत्व का एक आदर्श रूप मूर्तिवान हो गया है, जिसमें सजीवता है। गाँधी जी अपने आदर्श और सत्य के लिए जीवन त्याग सकते हैं, जगत से नाता छोड़ सकते हैं। अतः उनके लिए जीवन और जगत-अपने आदर्श और सत्य के लिए कोई महत्त्व नहीं रखते।

अब थोड़ा-सा नर-पिशाचियों की ब्रितानी सरकार पर विहंगम दृष्टि डालते हैं, तो हम पाते हैं कि वे अपने स्वार्थ में अंधे हो चुके हैं। वह सरकार साम्राज्यवादियों की है। उन स्वार्थी साम्राज्यवादी सरकार की सत्ता नर रक्तपात को मौन खड़ी देख सकती है। उन लोगों में मानवता का एक बिन्दु रूप भी नहीं है। यह अत्यन्त भय की अथवा अशिवता की बात घटित हो जाती है, जिसका हम सबको भय था, और गाँधी जी की भौतिक देह तप के गहन बोझ को सहन करने में असमर्थ हो जाती तो क्या इस मानवता की विभूति और पृथ्वी के रत्न गाँधी को नष्ट करने देने में क्या हम भारतीय आगा-पीछा न करेंगे? अर्थात् अवश्य करेंगे। आखिर वे मनुष्य ही तो थे; जिन्होंने तप से पवित्र शरीर वाले ईसा मसीह के शरीर में लोहे की कील ठोंक दी और स्वयं उन्होंने प्रसन्नता और सन्तोष का अनुभव किया। इतिहास, यदि उसी की पुनरावृत्ति करे तो कर सकता है, उसे रोकने वाला कौन है?

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प्रश्न 7.
इस पत्र के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पत्र के माध्यम से लेखक कहना चाहता है कि-
(1) प्रकृति ने मनुष्य की रचना की है और उसमें विचित्रता पैदा की है कि मनुष्य सदैव सुख और दुःख में सामंजस्य बैठाता रहा है। इस सामंजस्य की क्षमता भी उसमें अद्भुत है। सुख क्षणिक होता है। दुःख की अन्धेरी रात्रि अपार होती है। सुख की स्मृतियाँ जीवन में शक्ति, ऊर्जा और उत्साह की स्त्रोत कहलाती हैं।

(2) लेखक वैदिक युग के समाज का दिग्दर्शन कराता हुआ कहता है कि उस युग में स्त्री-पुरुष समाज के उत्सवों में समान रूप से भाग लेते थे। खेलों और उत्सवों तथा क्रीड़ाओं में दोनों की ही सहभागिता महत्त्व रखती थी।

(3) उस युग में इन उत्सवों और पर्वो पर सम्पन्न आयोजनों में ही युवक-युवतियाँ अपने वर और वधुओं का वरण कर लेती थी। माता-पिता की और अन्य सामाजिक रूप से महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की उपस्थिति में यह स्वयंवर सम्पन्न हुआ करते थे। पुरातन आर्यों की संस्कृति सुसम्पन्न थी।

(4) आज के होली-दीवाली आदि उत्सवों पर बन्धनयुक्त कल्पित आजादी विषैली हो गयी है। जीवन में पराधीनता का बन्धन सत्य नहीं है। आज हमें सत्य और असत्य से मिश्रित जीवन का उपभोग करने की बाध्यता अनुभव हो रही है।

(5) हम भारतीयों ने लम्बे समय तक पराधीनता के कष्ट भोगे हैं। इस पराधीनता में साम्राज्यवादी सत्ता की निष्ठुरता ने सभी भारतीयों को शताब्दियों तक झुलसाया है। फिर भी गाँ ती जी ने विश्वमानव को अपने शुद्ध तपभूत मन से यह बता दिया कि हिंसा पर अहिंसा विजय पा सकती है, यदि उसके पालन करने वाले सत्य और अपने आदर्श को जीवित रखने के लिए कटिबद्ध हैं। यद्यपि हिंसा मनुष्य में प्राकृत रूप से मौजूद है। सत्य कभी मरता नहीं है।

(6) यदि मानव समाज को संहार से, विनाश से और पाप से बचाना है तो समाज की समस्त व्यवस्था को अहिंसा के आधार पर स्थापित करना होगा। मनुष्यों का कहना है कि अहिंसा मानव-प्रकृति के प्रतिकूल है। अत: हिंसा का उन्मूलन कभी भी सम्भव नहीं है। परन्तु उन्हें यह समझने की कोशिश करनी होगी कि विकास पथ का पथिक मानव सदा प्रारम्भिक प्रवृत्तियों से युद्ध करता रहा है, उन पर संयम साधता रहा है, उन पर नियंत्रण करता रहा है, और परिणामत: वह आगे बढ़ता गया है। इसी तरह की साधना से विश्व में संस्कृतियों ने जन्म लिया।

(7) मनुष्यता का इतिहास परम साधना का इतिहास है। सहज प्रवृत्तियों का उन्मूलन मानव द्वारा सम्भव नहीं है। लेकिन उन प्रवृत्तियों को एक व्यवस्था दे सकता है। उन्हें कला के रंग से रंग सकता है। उन्हें नियंत्रित कर सकता है। इस सहज प्रवृत्तियों को उन्नत पथ की ओर मोड़ा जा सकता है। हिंसात्मक प्रवृत्ति के साथ ही मनुष्य में उसके ऊपर संयम करने की प्रवृत्ति भी तो मानव के अन्दर प्रकृति ने प्रदान की है। इस प्रकार मानव के अन्दर एक विशेष गुण है, वह है मनुष्य का द्वन्द्वात्मक स्वरूप। गाँधी जी ने बताया कि इस हिंसात्मक प्रवृत्ति पर विजय पाने में असफलता, मानवता की पुनीत साधना की असफलता होगी।

(8) मनुष्य लेखन के माध्यम से अपने मन में उठे उद्गारों को स्पष्ट कर देता है। यह उसकी कल्पना शक्ति की अभिव्यक्ति है। जिस पर अन्तःकरण की छाप लगी हुई होती है। लेखक के मन की अनुभूतियाँ जीवन के स्वरूप को बताती हैं। समस्याओं का समाधन आकलित होता है। वैचारिक भिन्नता अनिवार्य है। लेकिन आशा है कि भारत का विविधामय स्वरूप प्रेम और सौन्दर्य के सूत्र में अभिन्नता से पिरोया हुआ होने की आशा की जाती है।

बन्दी पिता का पत्र अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘बन्दी पिता का पत्र’ कहाँ लिखा गया था?
उत्तर:
‘बन्दी पिता का पत्र’ पंडित कमलापति त्रिपाठी ने नैनी सैंट्रल जेल में लिखा था।

प्रश्न 2.
पत्र-लेखन के समय नैनी सेंट्रल जेल में कौन-सा त्यौहार मनाया जा रहा था?
उत्तर:
पत्र-लेखन के समय नैनी सेंट्रल जेल में होली का उत्सव मनाया जा रहा था।

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बन्दी पिता का पत्र पाठका सारांश
प्रस्तावना :
लेखक अपने प्रिय पुत्र लाल जी को जेल से पत्र लिखता है। वह बताता है कि आज जेल में होली का उत्सव मनाया जा रहा है। लेखक के पास वाली बैरक से उल्लास भरी स्वर लहरियाँ उसे कान में सुनाई पड़ रही हैं। जेल की बैरके ही बहुत से कैदियों की समाधि स्थल बन गयी हैं। कुछ अपनी हड्डियाँ और मांस तक को सुखा चुके हैं; उनके लिए अब बसंत अथवा वर्षा ऋतु के सावन का मेघ गर्जन कहाँ? यहाँ कुछ कैदी ऐसे भी हैं जिनकी सुध लेने वाला बाहर कोई भी नहीं है। घरवाले उन्हें भूल चुके हैं, यहाँ तक कि बेटे, बाप, पत्नी परस्पर उन्हें पहचान नहीं सकते। तो फिर उनके हृदय में रस का संचार कहाँ हो सकता है? ऐसे होली, दीवाली पर्यों में आज वह सामर्थ्य कहाँ जो इनके टूटे हुए तारों को पुनः जोड़ दे?

प्रकृति एक महानटी है :
प्रकृति ने मनुष्य को एक विचित्रता दी है जिससे उसमें सुख और दुःख के सामंजस्य की स्थापना की क्षमता है। जीवन एक अस्थायी अस्तित्व को लिए हुए है जिसमें अनन्त वेदना और दुःख परिपूर्ण है। अतः यहाँ सुख, आनन्द और तृप्ति नाम का पदार्थ ढूँढ़े भी नहीं मिल सकता। सुख क्षणिक है, दु:ख की अनन्त कारा की कलियाँ सर्वत्र फैली हैं यहाँ। परन्तु फिर भी इस दुनिया में निराशा में आशा, अन्धकार में प्रकाश, मृत्यु में जीवन के सृजन का आधार बना रहता है।

समाज में अतृप्ति और अभाव :
सम्पूर्ण मानव समाज अतृप्ति और अभाव की समस्या से व्यथित है। मनुष्य सुख की तलाश ओस की बूंदों से प्यास बुझाने की तरह करता है। इसी तरह जेल के कैदी भी किसी भी तरह अपने मन के अवसाद को भुलाने के लिए ‘फगुआ गा रहे हैं’, कोई ढपली बजा रहा है, तो कोई अपने पैरों में घुघरू पहन नृत्य कर रहा है। इन कैदियों का भाग्य अभागेपन में डूब चुका है। परन्तु अपने जीवन में ये बंदी लोग उल्लारा की मादकता उत्पन्न करने की कोशिश कर रहे हैं। मुक्त आकाश का सौन्दर्य तो इन्हें मिलेगा नहीं, लेकिन कुछ क्षण के लिए मोहक और आकर्षक झलकियाँ जीवन का संचार कर ही देती हैं। इस होली पर्व का भी लम्बा इतिहास है। वैदिक युग में यही होली बसन्तोसव के रूप में मनाई जाती थी। विविध खेलकूद, नाचरंग, नाटक, घुड़दौड़, रथदौड़ होती थी। जीवन में जीवन का संचार था। स्त्री-पुरुष सभी इन उत्सवों में भाग लेते थे।

स्वयंवर प्रथा :
इन विविध प्रक्रियाओं के आयोजनों के बीच ही युवतियाँ भी मन के अनुकूल किसी युवक को पतिरूप में वरण करती थीं। माता-पिता उन युवक-युवतियों की इच्छाओं के अनुकूल आचरण करते थे। परन्तु ज्ञात नहीं कि जीवन और हृदयों के मिलन को पुण्यशाली पर्व की वह स्वस्थ परम्परा काल के गर्त में कब समा गई।

ब्रिटेन की साम्राज्यवादी सरकार की निष्ठुरता :
ब्रिटेन की साम्राज्यवादी सरकार की निष्ठुरता के समक्ष मानवतावादी दृष्टि अन्धत्व में समा गई है। उनके लिए न जीवन का मूल्य है, और न जगत का। उन्हें तो स्वार्थ के अन्धेरे में घेरा हुआ है। मनुष्यता से तो उनका दूर का भी परिचय नहीं है।

आदर्शों और सत्य के मूल्यों का ह्रास परन्तु बचाव :
स्वार्थपरता के अन्धकार को विकीर्ण करती यह सरकार आदर्शों और सत्य के मूल्यों से कोई सरोकार नहीं रखती। सम्पूर्ण मानव समाज को संहार से बचाने का प्रयास अहिंसा से ही हो सकता है। लेकिन हिंसा का उन्मूलन भी सम्भव नहीं है। लेकिन निराशा में आशा एवं विकास पथ का पथिक बना मानव सदा से ही इन कुत्सित प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने का क्रम अपनाता रहा है। यही वह साधना है जो संस्कृतियों को जन्म देती रही है।

मानवता का इतिहास ही साधना का इतिहास :
मनुष्य सहज और प्राकृतिक प्रवृत्तियों का उन्मूलन नहीं कर सकता। लेकिन इनको एक व्यवस्था दे सकता है। कला का रंग चढ़ा सकता है। उन्हें उन्नत पथ की ओर मोड़कर ले जाने का भागीरथी प्रयत्न कर सकता है। संस्कृतियों का विकास इसी तपस्या का फल है। हिंसा सहज प्रवृत्ति है लेकिन उस सहज प्रवृत्ति पर अंकुश डाला जा सकता है।

मानव का द्वन्द्वात्मक स्वरूप :
मानव अपने समाज में अपने इस द्वन्द्वात्मक स्वरूप से अभिशप्त है। गाँधी जी हिंसा पर अहिंसा द्वारा नियंत्रण का मंत्र जपते हैं तो यह असफलता उनकी नहीं, वरन् मानवता की पवित्र साधना की असफलता है। हिंसा में मनुष्य गतिहीन हो जाएगा। गाँधीजी उसी हिंसा के विरुद्ध इक्कीस दिन का आमरण व्रत लिए हुए हैं। जीवन निराशा में डूब रहा है।

उपसंहार :
मनुष्य अपनी जीवन नैया को आगे बढ़ाने के उपाय अपनाता है, लेखक भी अपनी लेखन शैली के माध्यम से समय काटता है। लिखता है, परन्तु उस लेखन में सम्बोधन किसी को भी कर सकता है। पत्र लेखक का प्रयोजन केवल सम्बोधित किए व्यक्ति के लिए ही नहीं होता, वह तो स्वयं लेखक के लिए भी महत्त्वपूर्ण होता है। विविध अनुभूतियाँ जीवन चक्र को विविधता देती हैं। विविधता का दृश्य जगत अभिन्नता के धारा प्रवाह में बहता रहे, एक ऐसा अदृश्य सूत्र इस विविधता को पिरोकर आकर्षण का केन्द्र बने भारत माता के हृदय का हार।


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